Thursday, October 15, 2020

औरत का अपमान दुर्गा का सम्मान ,कैसे सफल होगी पूजा ?

 इस तरह तो हर पूजा अधूरी  ही होगी 

     --समझा रही हैं सक्रिय लेखिका कौशल बंधना पंजाबी    

शुभ प्रभात

अलफ़ाज़-ए-अदब ग्रुप से साभार 
मां दुर्गा की पूजा कीजिए मगर औरत को मां ने अपना रूप प्रदान किया है,,उसकी भी इज्जत करना सीखिए, नहीं तो हर पूजा अधूरी है,,,बेशक पूर्व में या वर्तमान में यदि कोई भी पापकर्म किया औरत को गंदी नज़र से देखा। कोई कुकर्म किया या करने की धारणा रखी।या किसी से धोखा किया अपनी गंदी भावनाओं की शांति हेतु।

तो पहले तोबा करो उन कर्मों से जो कर लिए आजतक।तभी दुर्गा सफ़ल होगी उन मर्दों की जो दुर्गा पूजा तो दिल से करते हैं मगर पराई औरत को थाली का निवाला समझते हैं या फिर कुछ मनचले औरतों अथवा लड़कियों को अपनी हवस का शिकार बनाते हैं।

कुछ लोग रेप जैसी घटनाओं को अंजाम देकर भी मां दुर्गा के समक्ष पूजा करने का साहस करते हैं। कुछ दुनिया से छुपकर अच्छे आचरण तले छुपकर औरतों लड़कियों पर अपनी गंदी भावनाओं को प्रेम जाल में फंसाकर धोखा देकर भी मां दुर्गा के समक्ष पूजा करने का साहस करते हैं।

आए दिन रेप केस हो रहे यह कुंठित धारणाएं पता नहीं कैसे उत्पन्न होती होंगी और मर्द की रूह नहीं कांपती इनको धारणाओं को अंजाम देते।

मगर मां तो मां है सज़ा किसी रूप में अपने हिसाब से देती होगी ।प्रत्येक घर में मां बहन बेटी है तो मां दुर्गा की पूजा से पहले उसके प्रकोप का ध्यान भी रखिए यदि आपको सद्कर्म का फल मिलता है तो दुष्कर्म की सज़ा भी तय है।

समझिए सोचिए आपकी भावनाएं आपका आचरण किसी की रूह को ठेस ना पहुंचाए आपके कर्म आपके आगे इस तरह ना आए कि आपके परिवार में वही हो जो आपने पूर्व में किया। मां तो फल देगी ,,,,अच्छा या बुरा आपके कर्म तय करेंगे।

कहने का तात्पर्य बस इतना कि दुर्गा पूजा कीजिए अपनी सोच सुधारकर और गलतियों से तौबा कर ‌।औरत की इज्ज़त कीजिए मंदिर में बिठाकर ही नहीं मन में बिठाकर भी।हर औरत को थाली का निवाला मत समझिए।

जब गंदी भावनाएं आएं तो एक बार अवश्य सोचिए

कि आपके घर में मां,बहन बेटी भी है जो आप किसी गैर के लिए सोच कर रहे उनके साथ भी कल घट सकता है।

और आपको नवरात्री पूजन भी करना है किस मुंह से मां के समक्ष जाओगे क्या बोल पाओगे मां से जो दुनिया में तुमने अपना रूप दिया औरत उसी के साथ मैंने ग़लत किया।

धन्यवाद दुर्गा पूजा कीजिए परन्तु बाद में भूल मत जाना कि औरत मां का बनाया उसी का एक रूप है। पराई औरतों को भी मान सम्मान देना सीखिए।तभी आपकी दुर्गा पूजा सफ़ल होगी। --कौशल बंधना पंजाबी

(तेज़ी से उभतरि और तेज़ी से विकसित हो रहे "अलफ़ाज़-ए-अदब" ग्रुप से साभार) इस ग्रुप की एडमिन हैं सुश्री बेनु परवाज़, इरादीप त्रेहन, नीलू बग्गा लुधियानवी और अन्य। 

Tuesday, October 13, 2020

डा. सुरजीत पात्र की काव्य रचना बनी जसप्रीत फलक की प्रेरणा

 कविता, कथा कारवां के मंच ने करवाई किसानी पर विशेष चर्चा 


लुधियाना
: 12 अक्टूबर 2020: (हिंदी स्क्रीन ब्यूरो)::

शायर का मन बेहद संवेदनशील होता है। जब किसान घर बाहर छोड़ कर रेल पटरियों आ गये तो कलमकारों के दिल भी उठे।  उनकी खेती, उनकी मेहनत, कृषि से उनका इश्क-जब सब कुछ पूंजीपतियों के हवाले किये जाने साज़िशें कानून बनने लगीं तो शायर का अंतर्मन भी दहल उठा।  

डॉ. सुरजीत पातर जी की कृषि पर आधारित कविता 

"एह बात  निरी एनी ही नहीं  

ना ऐह मसला सिर्फ किसान दा ऐ" 

आयोजन का आधार बनी। इसी कविता को एक प्रभावशाली प्रेरणा कर जसप्रीत फलक बुद्धिजीवियों, शिक्षण के महारथियों और युवाओं को भी किसानों के दर्द और संघर्ष  की तरफ अग्रसर करने में  सफल रही। इश्क की बातें बहुत हो चुकी अब तो समय की नब्ज़ पर हाथ रख कर कुछ कहना आवश्यक हो गया था। इसी भावना से सभी उपस्थित सम्मानीयजनों का स्वागत किया गया। किसानों और किसानों को दरकिनार करके न तो खुशहाली सम्भव है और न ही सच्ची देशभक्ति। 

साहित्यिक और  सांस्कृतिक मंच कविता कथा कारवांँ की तरफ से आधुनिक कृषि में युवाओं की शमूलियत पर ऑनलाइन विचार चर्चा की गई जिसमें पंजाब के खेती माहिरों व प्रगतिशील किसानों द्वारा शिरकत की गई। कार्यक्रम का शुभारम्भ अध्यक्षा जसप्रीत कौर फ़लक ने सभी का स्वागत करते हुए किया। 

पंजाब के जॉइंट डायरेक्टर (कृषि) डॉ बलदेव सिंह बतौर मुख्य मेहमान शामिल हुए। उन्होंने बताया कि कृषि को किस प्रकार लाभदायक बनाया जा सकता है। कृषि क्षेत्र में हुनर विकास की बहुत संभावनाएं हैं उन्होंने कृषि के आधुनिक यंत्रों की जानकारी और उनके इस्तेमाल के बारे में बताया। साथ ही उन्होंने कहा कि किसानों को अपनी पराली को नहीं जलाना चाहिए पराली के धुएं से करोना बढ़ने की संभावना पैदा हो सकती है।  डॉ बलदेव सिंह ने उन नौजवान प्रगतिशील किसानों की मिसाल दी जिन्होंने कुछ हटकर किया और कृषि से अधिकतम मुनाफा कमाया है। पीएयू के साबका प्रोफेसर दलजीत सिंह ने कृषि के प्रगतिशील हुनर सीखने और उन्हें अमल में लाने की बात की और इसे व्यवसाय के तौर पर किस तरह अपनाना चाहिए इन सब बातों को बताया सीटी यूनिवर्सिटी के डीन एकेडमिक डॉ बक्शी ने कहा कि कृषि उद्योग के साथ जुड़े उद्योगों को बढ़ावा देने की आवश्यकता है कृषक जसवीर सिंह गुलाल ने सारे बताया कि परिवार में मिलजुल कर बागवानी का कार्य कर घर में भी खेती कर सकते हैं। पतरस गिल ने किसानों पर एक मार्मिक गीत 

"ख़री फसल ते चल दियां तवीयां, साडी हिक उत्ते फिर दिया छवियां, 

सब भुर गईयां सधरां जो नवीयां,  

चढ़े कर्जे ही उतार दे  मर गए, 

साडे पिंडेयां ते मारां दे निशान ने" 

और इसी तरह अन्य शायरों ने भी किसान के दर्द को बहुत ही कलात्मक अंदाज़ में प्रस्तुत किया।  बात बेशक पराली जलाने के मुद्दे को लेकर शुरू हुई लेकिन किसानों पर चढ़े क़र्ज़ और उसके शोषण पर भी भी काव्य चर्चा हुई:

प्रभलिखारी ने किसानों के प्रति एक संवेदनशील कविता पेश की:

ओह हक्कां दे लई लड़दा ए, 

ओह राखी फसल दी करदा हे,  

ओह अपने आप विच पूरा हे,  

ते लोकां नू पूरा कर दा ए" 

आयोजन को समाप्ति की तरफ ले जाते हुए मौजूदा संघर्ष पर भी गहन चर्चा हुई। पंजाब और देश के हालात पर भी विचार विमर्श हुआ। 

डॉ. जगतार धीमान,रजिस्ट्रार सी टी यूनिवर्सिटी ने कृषि की जानकारी देते हुए  मंच का संचालन बखूबी किया।


Saturday, October 10, 2020

नहीं रहे सोये हुए ज़हनों को झंझोड़ने वाले अज़ीम अमरोहवी साहिब

 कलम से ज़ुल्म  की कलाई मरोड़ना उन्हें बाखूबी आता था आता था  

कोरोना ने हमसे बहुत ख़ास ख़ास लोग छीन लिए। शायरी, सियासत, कला, फ़िल्में शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र बचा हो जिसमें से कोई न कोई घर सूना न हुआ हो। इसी दुखद कड़ी में एक और नाम है जनाब अज़ीम का। बहुत  करते थे। किसी का नाम चाहे इशारों से भी लें तो भी लिहाज़ नहीं करते थे। उनके इशारे भी अक्सर आसानी से समझ आ जाते कि किस किस चेहरे को बेनकाब कर रहे हैं। इस के बावजूद कभी भी तहज़ीब का साथ न छोड़ते। जैसे जैसे हालात नाज़ुक़ बनते गए वैसे वैसे अज़ीम साहिब की संवेदनशीलता भी  बारीकी से बढ़ती गई। न तो अंदाज़ बदला न ही तेवर बदले।  उनके जाने की दुखद जानकारी मिली है। 


आज के हालात में जब उनकी ज़रूरत पहले से कहीं ज़्यादा थी तब वह रुखसत हो गए। आज के इस नाज़ुक दौर में जब सच कहना बेहद दुश्वार होता जा रहा है और बहुत से लोग खामोश रहने में ही भलाई समझने लगे हैं इसके बावजूद भी सोशल मीडिया पर अक्सर पूरी तरह बेबाकी से सरगर्म रहने वाली मोहतरमा तस्वीर नक़वी साहिबा सेवह बताती हैं:अलविदा अज़ीम अमरोहवी साहेब,बहुत कमी कर गए आप मेरे शहर अमरोहा में,पचास किताबों के लेखक ,बहुत अच्छे मर्सिय लिखते थे ,पढ़ते थे ,एक हरदिल अज़ीज़ शख्सियत,दो महीने बड़ी बहादुरी से कोविड से जंग लड़ी मगर हार गए,आप अमरोहा की तारीख में दर्ज हो गए हमेशा के लिए!! 

Sunday, October 4, 2020

हाथरस मे घटी लड़की के बलात्कारोपरांत कत्ल की लेखकों ने भी निंदा की

 कविता कथा कारवां द्वारा गांधी जयंती पर हुआ आयोजन 


लुधियाना
: 4 अक्टूबर 2020: (हिंदी स्क्रीन ब्यूरो)::
 

देश की मौजूदा हालत पर जागरूक नागरिक  बन कर नज़र रखने वाले सभी शायर और लेखक भी बेहद चिंतित हैं। हाथरस में हुई जघन्य हत्या ने सभी को हिला कर रख दिया है। लेखन और शायरी को समर्पित गंभीर संगठन "कविता कथा कारवां" की तरफ से हुए आयोजन में स्पष्ट तैर पर यह आवाज़ बुलंद हुई कि आज वह भारत तो कहीं नज़र ही नहीं आ रहा जिसके सपने महात्मा गांधी जी ने देखे थे। सीमा पार सक्रिय दुश्मनों को ललकारने वाले शास्त्री जी अगर आज हमारे दरम्यान होते तो सबसे पहले सीमाओं के अंदर बैठे समाज दुश्मनों को सबक सिखाते। अफ़सोस के  निर्भया कांड के बाद भी ऐसी जघन्य  और अमानवीय वारदातें बार बार हुईं।  देश की बहु बेटियों के लिए कोई छोटा सा कोना भी सुरक्षित नहीं। कभी कठुआ,  कभी उन्नाव और अब हाथरस। बहुत दुखद और चिंतनीय स्थिति बन चुकी है।  गौरतलब है कि यह आयोजन भी सच बोलने की जुर्रत दिखाने वाली हिम्मतवर शायरा जसप्रीत कौर फलक की देखरेख में हुआ।  

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी तथा पूर्व  प्रधान मंत्री  श्री लाल बहादुर शास्त्री  जी  के जन्मदिन 2 अक्टूबर को मनाने के लिए संस्था कविता कथा कारवाँ के तहत,यू ट्यूब लाइव कार्यक्रम करवाया गया जिसमे विचार गोष्ठी, कवि सम्मेलन आदि  कार्यक्रम आयोजित किए गए। आज के लिए  महात्मा गाँधी जी  व श्री  लाल बहादुर शास्त्री जी के विचारों की सार्थकता  पर'  कविता पाठ एवं विचार गोष्ठी का आयोजन किया गया। सर्वप्रथम सुश्री शैली वधवा  ने 'रघुपति  राघव राजा राम' से कार्यक्रम का प्रारंभ किया। मंच की अध्यक्षा जसप्रीत कौर फ़लक ने सभी प्रतिष्ठित जनों का मंच पर स्वागत किया। अनेक सम्माननीय  कवियों  ने कविता के माध्यम से अपने विचार पेश किए । उन्होंने कहा कि बढ़े दु:ख को बात है कि आज भारत मे ऐसा कुछ  फिर  से हो रहा है जिसकी गांधी जी  भर्त्सना किया करते थे। डा अनु मेहता, रिशमजोत संघा विरक, आकाश ठाकुर, ज्योति बजाज, प्रभदयाल, इरादीप तरेहण, गुरमीत कौर, डा गोकुल  क्षत्रीय, डा अनु  शर्मा  कौल,   हरदीप विरदी, डा सुमन शर्मा और  शैली वाधवा ने अपनी भावनाओं को कविता के माध्यम से वयक्त किया।  भावनाऐं गांधी जी  व श्री लाल बहादुर शास्त्री जी को समर्पित रहीं।  हाल ही मे हाथरस  मे घटी लड़की के बलात्कारोपरांत कत्ल  की घिनौनी घटना  की निंदा की गई क्यूंकि इस घटना ने सभी को उद्धेलित कर रखा था। 

 डा जगतार धीमान ने अपने भाषण में  गाँधी जी  तथा श्री लाल बहादुर शास्त्री जी के जीवन  सिद्धांतों का ज़िक्र करते हुए  बुरा न सुनने, बोलने व देखने के साथ साथ  अहिंसा, शांति, सच्चाई, सहिष्णुता, आदि  की आज  अधिक आवश्यकता को दरसाया। उन्होंनें गांधी  व शास्त्री जी श्रद्धांजलि देती हुई अपनी कविता भी पढ़ी। अध्यक्षा  जसपरीत  कौर फलक ने कहा कि आज विश्व स्तर पर गांधी जी की  के दर्शन व जीवन  शैली की बढती हुई पसंद  का जिक्र करते हुए कहा किआज युवा वर्ग को देशभक्ति के साथ साथ अहिंसा को अपनाने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए। इसी के साथ मैडम फ़लक द्वारा सभी अतिथियों को धन्यवाद दिया गया और  शुभकामनाएं देकर  अंत में राष्ट्रगान के साथ सभा का समापन किया गया।


Friday, October 2, 2020

अहिंसक पथ के प्रेरक: महात्‍मा गांधी

 11-अक्टूबर-2017 18:53 IST

   विशेष लेख                                                                                                        ए.अन्‍नामलाई   


सत्य और अहिंसा के पुजारी एवं देश में आजादी की अलख जगाने वाले महात्मा गांधी ऐसे दूरदर्शी महापुरुष थे जो पहले ही यह भांप लेते थे कि कौन-कौन सी समस्‍याएं आगे चलकर विकराल रूप धारण करने वाली हैं। इसकी बानगी आपके सामने है। 

  *ए.अन्‍नामलाई   
महात्मा गांधी ने जिन समस्‍याओं का सटीक समाधान खोजने पर अपना ध्‍यान केंद्रित किया था वे आज के हमारे युग में भारी बोझ बन गई हैं। विश्‍व स्‍तर पर फैली गरीबी, अमीर एवं गरीब के बीच बढ़ती खाई, आतंकवाद, जातीय युद्ध, उत्पीड़न, भ्रष्टाचार, पूर्व और पश्चिम के बीच बढ़ता फासला, उत्तर और दक्षिण के बीच बढ़ती विषमता, धार्मिक असहिष्णुता तथा हिंसा जैसी समस्‍याओं पर अपनी नजरें दौड़ाने पर आप भी इस तथ्‍य से सहमत हुए बिना नहीं रहेंगे। यही नहीं, महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता एवं समानता, मित्रता एवं गरिमा, व्यक्तिगत कल्याण और सामाजिक प्रगति जैसे जिन महान आदर्शों के लिए संघर्ष किया था, उनके लिए हम आज भी लड़ रहे हैं।

महात्मा गांधी ने दुनिया के इतिहास में पहली बार  जंग लड़े बिना ही एक विशाल साम्राज्य के चंगुल से छुड़ाकर एक महान देश को आजादी दिला दी। उस समय तक अमेरिका और एशिया के जितने भी उपनिवेशों ने यूरोप की औपनिवेशिक ताकतों से अपनी आजादी हासिल की थी उसके लिए उन्‍हें भयावह एवं विनाशकारी जंग लड़नी पड़ी थी। वहीं, दूसरी ओर महात्मा गांधी ने शांतिपूर्ण तरीके से यानी अहिंसा के मार्ग पर चलकर देश को बहुप्रतीक्षित आजादी दिला दी। यह इतिहास में ‘मील का पत्थर’ था। दूसरे शब्‍दों में, यह एक युगांतकारी घटना थी। यह निश्चित रूप से मानव जाति के इतिहास में महात्मा गांधी का अविस्मरणीय योगदान है - युद्ध के बिना आजादी।

दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह

यह अहिंसा की पहली जीत थी–सविनय अवज्ञा की पहली जीत। इसने पूरी दुनिया के समक्ष पहली बार यह साबित कर दिया कि अच्छे परिणाम प्राप्त करने के लिए हिंसा का रास्‍ता अख्तियार करना एक अप्रचलित या पुरातन तरीका है।

जब भी किसी बिगड़ते हालात से पूरे विश्वास के साथ, साहस के साथ, दृढ़ता के साथ एवं धीरज के साथ निपटा जाता है तो अहिंसा की तुलना में कोई भी हथियार अधिक कारगर साबित नहीं होता है। यह धरसना नमक वर्क्स और भारत की आजादी के लिए छेड़े गए आंदोलन का सबक था। यह महात्मा गांधी का महान ऐतिहासिक सबक था, लेकिन दुर्भाग्यवश दुनिया को अब भी यह सबक सीखना बाकी है।

महात्मा गांधी वर्ष 1906 से लेकर 30 जनवरी 1948 को अपनी मृत्यु तक अपने अहिंसक आंदोलन एवं संघर्ष के साथ अत्‍यंत सक्रिय रहे थे। इस अवधि के दौरान उन्‍होंने भारतीय एम्बुलेंस कोर के एक स्वयंसेवक के रूप में दक्षिण अफ्रीका में हुए बोअर युद्ध और ज़ुलु विद्रोह में हिस्सा लिया। महात्मा गांधी दो विश्व युद्धों के साक्षी भी बने। 

उनका अहिंसक संघर्ष काफी सक्रिय रहा था और जब भी जरूरत पड़ी, तो उन्होंने अफ्रीका में युद्ध की तरह अपनी अहिंसा को कसौटी पर रखा। जब भारत में सांप्रदायिक हिंसा की आग फैल गई तो वह भारत के पूर्वी भाग चले गए, ताकि वहां आमने-सामने रहकर हिंसक हालात का जायजा लिया जा सके।  

नोआखली में शांति मिशन

 ‘शिकागो डेली’ के दक्षिण एशिया संवाददाता श्री फिलिप्स टैलबॉट महात्मा गांधी के ऐतिहासिक मिशन के प्रत्यक्ष साक्षी थे। वह पश्चिम बंगाल के नोआखली गए और वहां फैली सांप्रदायिक हिंसा के दौरान महात्मा गांधी के साथ समय बिताया।  उन्होंने कहा, ‘छोटे कद का एक वृद्ध व्‍यक्ति, जिसने निजी संपत्ति त्‍याग दी है, एक महान मानव आदर्श की तलाश में ठंडी धरती पर नंगे पैर घूम रहा है।’

तात्कालिक अभिप्राय            

अप्रैल 1945 में द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति पर ग्रेट ब्रिटेन में नए सिरे से चुनाव हुए और प्रधानमंत्री के रूप में लेबर पार्टी के क्लीमेंट एटली की अगुवाई में सरकार बनी, जिन्‍होंने भारत में विचार-विमर्श करने और स्वशासन का मार्ग प्रशस्‍त करने के लिए कैबिनेट मंत्रियों का एक प्रतिनिधिमंडल भारत भेजा। उस समय तक एक समुचित समझौता संभव नजर आ रहा था और एक अंतरिम सरकार का गठन किया जाना था जिसके लिए कांग्रेस ने अपनी सहमति व्यक्त कर दी थी। हालांकि, जिन्ना एवं मुस्लिम लीग ने अलग राष्ट्र की वकालत की और 16 अगस्त 1946 को ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ के रूप में मनाया, जिस वजह से कलकत्ता और पूर्वी बंगाल में अप्रत्‍याशित रूप से दंगे भड़क उठे।

सच्‍चाई को परखना

प्रतिक्रियास्‍वरूप, इस तरह के दंगे बंगाल के नोआखली और टिपराह जिलों में भड़क उठे। तब महात्मा गांधी ने एक संवाददाता के इस सुझाव को स्‍मरण किया एवं उस पर गंभीरतापूर्वक मनन किया कि उन्‍हें खुद किसी दंगा स्‍थल पर जाना चाहिए और व्यक्तिगत उदाहरण के जरिए अहिंसक ढंग से दंगों को शांत करने का रास्ता दिखाना चाहिए। महात्मा गांधी के अनुसार, ‘अहिंसा की उनकी तकनीक कसौटी पर कसी जा रही है। यह देखना अभी बाकी है कि वर्तमान संकट में यह कितनी कारगर साबित होती है। यदि इसमें कोई सच्‍चाई नहीं है, तो बेहतर यही होगा कि मुझे खुद ही अपनी विफलता घोषित कर देनी चाहिए।’ ठीक यही विचार इस अवधि के दौरान उनके प्रार्थना भाषणों में बार-बार व्यक्त किया गया था।

बंगाल में सांप्रदायिक अशांति के बाद महात्मा गांधी का संदेश यह था कि ‘सांत्वना नहीं, बल्कि साहस ही हमें बचाएगा।’ तदनुसार, महात्मा गांधी 7 नवंबर 1946 को नोआखली पहुंच गए और 2 मार्च 1947 को बिहार रवाना हो गए। ध्‍यान देने योग्‍य बात यह है कि 77 साल की उम्र में भी महात्मा गांधी अहिंसा और हिन्दू-मुस्लिम एकता में अपने विश्वास की सच्‍चाई को परखने के लिए नंगे पांव पूर्वी बंगाल के एक दूरदराज गांव जाने से पीछे नहीं हटे। महात्मा गांधी खुद दिसंबर 1946 के आखिर तक श्रीरामपुर नामक एक छोटे से गांव में डटे रहे और अपने अनुयायियों को अन्य दंगा प्रभावित गांवों में यह निर्देश देकर भेज दिया कि वे उन गांवों में रहने वाले हिंदू अल्पसंख्यक की सुरक्षा और हिफाजत के लिए कोई भी जोखिम मोल लेने से पीछे न हटें। जनवरी में उन्‍होंने दो चरणों में नोआखली स्थित गांवों का व्यापक दौरा शुरू कर दिया। अपने बारे में उन्होंने कहा, ‘मैं पूरे वर्ष या उससे भी अधिक समय तक यहां रह सकता हूं। यदि आवश्यक हो, तो मैं यहां मर जाऊंगा। लेकिन मैं मौन रहकर विफलता को स्वीकार नहीं करूंगा।’

उनकी दिनचर्या

गांवों के अपने दौरे के दौरान महात्मा गांधी ने नियमित रूप से तड़के 4 बजे उठने की आदत डाल दी। सुबह की प्रार्थना पूरी करने के बाद वह एक गिलास ‘शहद युक्‍त पानी’ पीते थे और सुबह होने तक तकरीबन दो घंटे अपने पत्राचार में लगे रहते थे। सुबह 7.30 बजे वह एक कर्मचारी और अपनी पोती के कंधों पर अपने हाथ रखकर सैर पर निकल जाते थे। हाथ से बुनी शॉल में लिपटे यह वृद्ध व्‍यक्ति काफी तेज कदमों से आगे-आगे चला करते थे। वह वृद्ध भारतीय तीर्थयात्रियों की तरह नंगे पांव चला करते थे। उनके आसपास कुछ अभिन्‍न व्‍यक्ति रहते थे जैसे कि प्रोफेसर निर्मल कुमार बोस, जो उनके बंगाली दुभाषिया थे और परशुराम, जो एक प्रकार के निजी परिचारक-कम-स्टेनोग्राफर थे। इसके अलावा, उनके आसपास एक-दो युवक, कुछ समाचार संवाददाता और मुस्लिम लीग के प्रीमियर एच. एस. सुहरावर्थी द्वारा मुहैया कराई गई पुलिसकर्मियों की एक टीम  (महात्‍मा गांधी द्वारा बार-बार विरोध जताने के बावजूद) रहती थी। कई ग्रामीण भी उनके साथ उस गांव तक जाया करते थे जहां वह एक दिन ठहरते थे। शाम में प्रार्थना सभा आयोजित की जाती थी। इसके बाद एक परिचर्चा आयोजित की जाती थी जिस दौरान वह अपने जेहन में उठने वाले हर विचार को लोगों के सामने रखते थे जैसे कि गांव में साफ-सफाई, महिलाओं में पर्दा प्रथा, हिंदू-मुस्लिम एकता, इत्‍यादि। रात्रि लगभग 9 बजे वह मालिश के बाद स्नान करते थे। इसके बाद वह एक गिलास गर्म दूध के साथ जमीन के नीचे उपजने वाली एवं कटी हुई सब्जियों के उबले पेस्ट के रूप में हल्‍का भोजन लेते थे।

उनके मिशन की कवरेज

नोआखली में अपने प्रवास के लगभग चार महीनों में महात्‍मा गांधी ने 116 मील की दूरी तय की और 47 गांवों का दौरा किया। नवंबर-दिसंबर के दौरान एक महीने से भी ज्यादा समय तक वह श्रीरामपुर में एक ऐसे घर में रहे जो आधा जला हुआ था। उन्होंने 4 फरवरी और 25 फरवरी, 1947 को समाप्त दो समयावधि में अन्य गांवों का दौरा किया। वह 2 मार्च 1947 को हैमचर (नोआखली जिले में) से कलकत्ता होते हुए बिहार के लिए रवाना हो गए।

एक और ‘करो या मरो’ मिशन

महात्मा गांधी ने 5 दिसंबर, 1946 को नारनदास गांधी को लिखे एक पत्र में अपने मिशन के बारे में निम्नलिखित शब्दों में अभिव्यक्त किया:-

‘वर्तमान मिशन मेरे जीवन में शुरू किए गए सभी मिशनों में सबसे जटिल है. . . मुझे याद नहीं है कि मैंने अपने जीवन में इस तरह के घनघोर अंधेरे का अनुभव इससे पहले कभी किया भी था या नहीं। रात काफी लंबी प्रतीत हो रही है। मेरे लिए एकमात्र सांत्वना की बात यह है कि मैंने हार नहीं मानी है या निराशा को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया है। यह पूरा किया जाएगा। मेरा मतलब यहां ‘करो या मरो’ से है। ‘करो’ से मतलब हिंदुओं और मुसलमानों के बीच सौहार्द बहाल करने से है और ‘मरो’ से मतलब प्रयास करते-करते मिट जाने से है। इसे हासिल करना मुश्किल है। लेकिन सब कुछ ईश्वर की इच्छा के अनुरूप ही होगा।’ (सीडब्ल्यूएमजी, 86: 197-98)  

वह वास्तव में एक कठिन मार्ग पर नंगे पांव चलने वाले ‘अकेले तीर्थयात्री’ थे और वह लोगों की ता‍कत एवं अहिंसा की ताकत का नायाब प्रदर्शन करने में काफी हद तक सफल रहे।

मिशन गांधी:

जब पूरी दुनिया ने एक सामाजिक व्यवस्था के रूप में अनुबंधित श्रम को स्वीकार कर लिया था, तब महात्‍मा गांधी ने इसका विरोध किया। जब पूरी दुनिया ने यह स्वीकार कर लिया कि ‘ताकतवर की बात ही सही माननी पड़ती है’, तब महात्‍मा गांधी ने यह साबित कर दिया कि ‘जो सही बात होती है उसे ताकतवर को भी माननी पड़ती है।’ जब पूरी दुनिया ने मार-काट वाली लड़ाइयां लड़ीं, तब उन्होंने एक अहिंसक लड़ाई लड़ी। उन्होंने हिंसा के स्‍थान पर अहिंसा को अपना कर इतिहास की दिशा ही बदल दी। अब तक हिंसा ही राजनीतिक विवादों को सुलझाने का अंतिम हथियार थी, लेकिन अहिंसक प्रतिरोध अर्थात सत्याग्रह के जरिए उनके योगदान के बाद अहिंसा ने पूरी दुनिया में लोगों के हालिया आंदोलन में सबसे अहम स्थान हासिल कर लिया है।  (PIB)

फोटोः हिंदी स्क्रीन इनपुट 

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लेखक ए.अन्‍नामलाई, राष्ट्रीय गांधी संग्रहालय, राजघाट, नई दिल्ली में निदेशक के पद पर कार्यरत है।  

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Thursday, October 1, 2020

स्‍वच्‍छता की कमी एक अदृश्‍य हत्‍यारे की तरह है

 03-अक्टूबर-2017 09:39 IST

गांधी जी के लिए अहिंसा स्‍वच्‍छता के समान थी


गांधी जयंती-02 अक्टूबर को होती है। 
इस अवसर पर आयोजित “स्वच्छता ही सेवा” पखवाड़ा के संबंध में  *सुधीरेन्द्र शर्मा का विशेष लेख-

*सुधीरेन्द्र शर्मा

गंदगी और बीमारी के खिलाफ भारत के निर्णायक युद्ध को ‘स्‍वच्‍छता ही सेवा’ अभियान से ज़ोरदार बढ़ावा मिला है जो स्‍वच्‍छता की साझा जिम्‍मेदारी के बारे में हमारा ध्‍यान आकृष्‍ट करता है। देश में पहले से चलाए जा रहे ‘स्‍वच्‍छ भारत मिशन’ को और असरदार बनाने की इस मुहिम में जनता का आह्वान किया गया है कि वे साफ-सफाई को उन ‘दूसरे’ लोगों की जिम्‍मेदारी न समझें जो ‘हमारे’ इस दायित्‍व को ऐतिहासिक रूप से खुद निभाते आए हैं।   

महात्‍मा गांधी के घुमंतु जीवन में ऐसे अनगिनत अवसर आए जिनसे स्‍वच्‍छता और सेवा का संबंध स्‍पष्‍ट रूप से सामने आ जाता है और तब गांधीजी अपने आप को  ‘हरएक को खुद का सफाईकर्मी होना चाहिए’ के आदर्श के जीते-जागते उदाहरण के रूप में पेश करते हैं। इस बात के बारे में आश्‍वस्‍त हो जाने पर कि वह ‘किसी को भी गंदे पांव अपने मस्तिष्‍क से होकर गुजरने नहीं देंगे’ गांधी जी ने झाड़ू को जीवन भर मजबूती से अपने हाथों में थामे रखा और ‘सफाईकर्मी की तरह’ अपनी सेवाएं उपलब्‍ध कराने का कोई अवसर नहीं गंवाया।  

 अफ्रीका में फीनिक्‍स से भारत में सेवाग्राम तक गांधीजी के आश्रम इस बात का जीता-जागता उदाहरण रहा कि स्‍वच्‍छता के लिए सेवा करने का क्‍या मतलब है। साफ-सफाई उनके लिए दिखावे के लिए की जाने वाली कोई गतिविधि न होकर सेवा का एक महान कार्य था जिसमें सभी आश्रमवासी रोजाना हिस्‍सा लेते थे। इससे यह स्‍पष्‍ट हो जाता है कि राष्‍ट्रपिता के लिए स्‍वच्‍छता का कार्य एक ऐसा सामाजिक हथियार था जिसका उपयोग वह साफ-सफाई में बाधा डालने वाली जाति और वर्ग की बाधाओं को दूर करने में करते थे और यह आज तक प्रासंगिक बना हुआ है।

लेकिन यह बात हैरान करने वाली है कि महात्‍मा गांधी ने आजादी हासिल करने के अपने अहिंसक आंदोलन की समूची अवधि के दौरान किस तरह स्‍वच्‍छता के अपने संदेश को जीवंत बनाए रखा। नोआखाली नरसंहार के बाद अहिंसा के अपने विचार और व्‍यवहार की अग्निपरीक्षा की घड़ी में गांधीजी ने अपने इस संदेश को जन-जन तक पहुंचाने का कोई अवसर नहीं गंवाया कि स्‍वच्‍छता और अहिंसा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।   

एक दिन नोआखाली के गड़बड़ी वाले इलाकों में अपने शांति अभियान के दौरान उन्‍होंने पाया कि कच्‍ची सड़क पर कूड़ा और गंदगी इसलिए फैला दी गयी है ताकि वह हिंसाग्रस्‍त इलाके के लोगों तक शांति का संदेश न पहुंचा पाएं। गांधी जी इससे जरा भी विचलित नहीं हुए और उन्‍होंने इसे उस कार्य करने का एक सुनहरा अवसर माना जो सिर्फ वही कर सकते थे। आस-पास की झाडि़यों की टहनियों से झाड़ू बनाकर शांति और अहिंसा के इस दूत ने अपने विरोधियों की गली की सफाई की और हिंसा को ओर भड़कने से रोक दिया।   

उनके लिए ‘स्‍वस्‍थ्‍य तन, स्‍वस्‍थ मन’ की कहावत में कोई मूर्त अभिव्‍यक्ति अंतर्निहित नहीं थी, बल्कि इसमें एक गहरा दार्शनिक संदेश छिपा हुआ था। क्‍या कोई ऐसा व्‍यक्ति अपने मन में अहिंसक विचारों को प्रश्रय दे सकता है जिसके कृत्‍य दूसरे प्राणियों या प्रकृति के प्रति हिंसक होंॽ वह स्‍वच्‍छता को स्‍वतंत्रता के अपने राजनीतिक आंदोलन का अभिन्‍न अंग मानते थे और नि:संदेह वह स्‍वच्‍छता की कमी को हिंसक कृत्‍य के समान मानते थे। सचमुच, स्‍वच्‍छता की कमी से देश में आज भी लाखों बच्‍चे मौत की नींद सो जाते हैं और यह भी एक तरह की हिंसा ही है।     

      कोई आश्‍चर्य नहीं कि स्‍वच्‍छता की कमी एक अदृश्‍य हत्‍यारे की तरह है। गांधी जी को गंदगी में हिंसा का सबसे घृणित रूप छिपा हुआ दिखता था। इसलिए वह सामाजिक-राजनीतिक, दोनों ही तरह की स्‍वतंत्रता के मार्ग में स्‍वच्‍छता और अहिंसा सहयात्री की तरह मानते थे। गांधीजी पश्चिम में स्‍वच्‍छता के सुचिंतित नियमों को देख चुके थे इसलिए वह इन्‍हें अपने और अपने करोड़ों अनुयायियों के जीवन में अपनाने का लोभ संवरण नहीं कर पाए।हालांकि इसके लिए उन्‍होंने जो कार्य शुरू किया उसमें से ज्‍यादातर अब भी अधूरे ही हैं।    

       ‘‘वर्षों पहले मैंने जाना कि शौचालय भी उतना ही साफ-सुथरा होना चाहिए जितना कि ड्राइंग रूम’’।अपनी जानकारी को ऊंचे स्‍तर पर ले जाते हुए गांधीजी ने अपने शौचालय को (वर्धा में सेवाग्राम के अपने आश्रम में) शब्‍दश: पूजास्‍थल की तरह बनाया क्‍योंकि उनके लिए स्‍वच्‍छता दिव्‍यता के समान थी। शौचालय को इतना महत्‍व देकर ही जनता को इसके महत्व के बारे में समझाया जा सकता है। इस पर अमल के लिए हमें गंदगी में रहने के बारे में अपनी उस धारणा में बदलाव लाना होगा जिसके तहत हम स्‍वच्‍छता को आम बात न मानकर एक अपवाद अधिक मानते हैं।  

       देश को 2 अक्‍तूबर 2019 तक खुले में शौच से मुक्ति दिलाने का महत्‍वाकांक्षी लक्ष्‍य उसी दिशा में उठाया गया पहला कदम है। देश भर में 5 करोड़ से ज्‍यादा घरों में से हर एक में शौचालय का निर्माण करने का वादा एक चुनौती भरा लक्ष्‍य है, लेकिन ‘शौचालय आंदोलन’ को ऐसे ‘सामाजिक आंदोलन’ में बदलना, जिसमें शौचालयों का उपयोग आम बात बन जाए, तभी संभव है जब हम गांधी जी के जीवन से सबक लें। अन्‍य बातों के अलावा हमें शौचालयों की सफाई करने और सीवेज के गड्ढों को खाली करने के बारे में गांव के लोगों की अनिच्‍छा जैसी सामाजिक-सांस्‍कृतिक वर्जना को दूर करना होगा।      

कोई भी इस समस्‍या की गंभीरता का अनुमान उस तरह से नहीं लगा सकता जिस तरह गांधीजी ने खुद इसका आकलन किया था। एक बार जब कस्‍तूरबा गांधी ने शौचालय साफ करने और गंदगी का डब्‍बा उठाने में घृणा महसूस की थी तो गांधीजी ने उन्‍हें झिड़की दी थी कि अगर वह सफाई कर्मी का कार्य नहीं करना चाहतीं तो उन्‍हें घर छोड़कर चला जाना चाहिए। कई तरह से स्‍वच्‍छता उनके लिए अहिंसा की तरह, या शायद इससे भी ऊंची चीज थी।    

गांधी जी के जीवन के इस छोटे-से मगर महत्‍वपूर्ण प्रकरण में एक बहुमूल्‍य संदेश निहित है।अपने बाकी जीवन में इस पर अमल करते हुए कस्‍तूरबा ने अनजाने में ही ‘स्‍वच्‍छता ही व्‍यवहार है’ का परिचय दे दिया। अगले साल स्‍वच्‍छता अभियान के लिए यह प्रेरक संदेश हो सकता है। आखिर यही तो वह व्‍यवहार-परिवर्तन है जिसके संदेश को स्‍वच्‍छ भारत मिशन के जरिए करोड़ों लोगों के मन में बैठाने का प्रयास किया जा रहा है। (PIB)

फोटोः  हिंदी स्क्रीन इनपुट 

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*डॉ. सुधीरेन्द्र शर्मा स्‍वतंत्र लेखक, अनुसंधानकर्ता और शिक्षाविद हैं। इस लेख में व्‍यक्‍त विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं।