Saturday, May 31, 2014

भारतीय भाषायें लागू करने के लिए एक पत्र मोदी के नाम

 Sat, May 31, 2014 at 9:58 AM
आजादी के 67 साल बाद भी फिरंगी भाषा की दासता शर्मनाक
प्रतिष्ठा में,                                                                                                            30 मई,2014
श्री नरेन्द्र मोदी,
प्रधानमंत्री

भारत  

विषय- आजादी के 67 साल बाद भी देश की व्यवस्था को अंग्रेजी की दासता से मुक्त करके देश में भारतीय भाषायें लागू करने के लिए 
(1)संघ लोकसेवा आयोग (2) सर्वोच्च व उच्च न्यायालयों में जारी अंग्रेजी की अनिवार्यता हटाने के लिए
-संविधान एवं संसद की देख रेख में चल रहा है भारत में अंग्रेजी का विस्तार
जय हिन्द! मान्यवर, देश की आजादी के 67 साल बाद भी देश, उसी फिरंगी भाषा (अंग्रेजी) की दासता शर्मनाक ढ़ग से जकड़ा हुआ है जिसकी गुलामी से मुुक्ति के लिए देश के लाखों सपूतों ने अपना सर्वस्व बलिदान देते हुए शताब्दियों तक लम्बा ऐतिहासिक संघर्ष किया था। देश के हुक्मरानों की अंग्रेजी दासता के अंध मोह के कारण आज संसार का सबसे बडा लोकतंत्र अपने नाम, अपनी भाषा व अपने इतिहास के साथ साथ लोकशाही के लिए तरस रहा है। आज देश में न्यायपालिका सहित पूरी व्यवस्था में अंग्रेजी का ही राज चल रहा है। देश में सर्वोच्च व उच्च न्यायालयों में ही नहीं संघ लोकसेवा आयोग से लेकर शिक्षा, प्रतिष्ठा व रोजगार पूरी तरह से अंग्रेजी भाषा की दासता में जकड़ा हुआ है। लोकशाही के नाम पर देश की सवा सौ करोड़ जनता को 15 अगस्त 1947 के बाद बैशर्मी से गूंगा बहरा बना कर लोकशाही व मानवाधिकार का गला ही घोट लिया है।
इसी फिरंगी भाषा की गुलामी से देश को मुक्त कराने के लिए भारतीय भाषा आंदोलन तीन दशक से अधिक समय से निरंतर संघर्ष कर रहा है। देश की अस्मिता, सम्मान व लोकशाही को अंग्रेजी के अंध मोह में रौंद रहे हुक्मरानों की धृष्ठता को देख कर भारतीय भाषा आंदोलन ने 21 अप्रैल 2013 से संसद की चैखट, राष्ट्रीय धरना स्थल जंतर मंतर पर अखण्ड धरना दे कर देश की आजादी को अंग्रेजी दासता से मुक्त कराने का ऐतिहासिक आंदोलन शुरू कर रखा है। हमारा साफ मानना है कि भले ही देश 15 अगस्त 1947 को अंग्रेजों से आजाद हो गया हो परन्तु देश के हुकमरानों के फिरंगी भाषा के प्रति अंध मोह के कारण देश की आजादी आज भी 67 सालों से अंग्रेजी भाषा द्वारा गुलाम बनायी गयी है। पूरे तंत्र में उसी फिरंगी भाषा का राज चलने के कारण आज भी भारत राष्ट्रमण्डल देशों की प्रमुख ब्रिट्रेन की सम्राज्ञी का ही गुलाम बना हुआ है। जिस देश का अपने देश की ीााषा का शासन, न्याय, शिक्षा, रोजगार व सम्मान में राज न हो वह देश गुलामी से बदतर स्वयं भू गुलाम उसी विदेशी भाषा का होता है जिसका राज उस देश में चल रहा होता है।
आज से लगभग 45 वर्ष पूर्व भारतीय भाषाओं की मान्यता हेतु संसद ने एक प्रस्ताव पारित किया था। उस प्रस्ताव को लागू करने के सवाल पर भारत का शासन एवं प्रशासन हमेशा से स्वयं को बचाता रहा है। संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षाओं में भारतीय भाषाओं को लागू करने का मामला हो या सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय में जनता की भाषा में सुनवाई का सवाल हो ! संघ लोक सेवा आयोग एवं सर्वोच्च न्यायालय के साथ-साथ स्वयं संसद ने भी अपने प्रस्ताव को संवैधानिक कारणों के चलते हमेशा दबाने की कोशिश ही की है। दरअसल कारण जो भी हो, डरावने सचों का सामना करने का जिगरा ना भारत की संसद एवं शासन व्यवस्था के पास बचा है और ना ही समाज के पास ! सब अपनी-अपनी सुविधानुसार कामचलाऊ झूठ के सहारे चल रहे हैं । अंग्रेजी का आरक्षण भारत में अनंतकाल तक चलता रहेगा ! यह डरावना सच भारत के संविधान में ही लिख दिया गया था। संविधान के इस भयानक सच पर कभी सीधी बात नहीं होती। क्योंकि संविधान सर्वोपरि है। लिहाजा अंग्रेजी का चक्रव्यूह अब गांवों तक को तेजी से अपनी चपेट में ले रहा है। सर्वोच्च न्यायालय एवं संसद भी सर्वोपरि है। इन पर उंगली उठाना गुनाह है। यह डर भी जनता की नसों में उतारा जा चुका है। संविधान-संसद एवं सरकारों की देखरेख में अंग्रेजी की जड़ों को भारत की नसों में गहरे उतारने के साथ-साथ भारत की भाषाओं को मान्यता दिलाने के लिए भी सरकारी-गैरसरकारी स्तर पर अपनी-अपनी सुविधानुसार ठग-विधाऐं भारत में चल रही हैं । ऐसी ही एक ठग विधा का आयोजन भारत सरकार की तरफ से प्रत्येक वर्ष 14 सितम्बर से शुरू होता है जो दो सप्ताह तक चलता है। इसमें सिर्फ ‘सरकारी ठग’ ही शामिल होते हैं। इस आयोजन के द्वारा अरबों रूपयों के उस फंड का औचित्य सिद्ध किया जाता है जो सरकार में बैठे ‘भाषा आंदोलनकारियों’ पर प्रत्येक वर्ष खर्च किया जा रहा है।
इन ‘सरकारी आंदोलनकारियों’ के प्रयासों के चलते सरकारी विभागों में भारतीय भाषाओं की मान्यता हेतु संसदीय राजभाषा समिति की सिफारिश पर लगभग 5 वर्ष में एक बार राष्ट्रपति के आदेश जारी करने की भी परम्परा है। परम्परागत राष्ट्रपति के ये आदेश किन रद्दी की टोकरियों के हवाले कर दिये जाते हैं, इसकी फिक्र ना कभी संसद को रही और ना ही राष्ट्रपति भवन को। भाषा के सवालों को लेकर संसद एवं राष्ट्रपति भवन के बीच चलती आ रही इस ठग विधा का यह दूसरा नमूना है। भारतीय भाषाओं के सवाल पर संविधान के बाद, अब तक ठगी एवं झूठ का सबसे बडा उदाहरण स्वयं संसद ने लगभग 45 वर्ष पूर्व 18 जनवरी 1968 को पेश किया था। भारतीय भाषाओं को लागू करने हेतु इस दिन संसद ने एक प्रस्ताव पारित किया था, उसका नाम दिया गया संसदीय संकल्प। वह संकल्प पिछले 45 वर्षों से कभी संसद के बाहर नहीं जा पाया। संसद के ओर संकल्पों की तरह यह संकल्प भी संसद की कैद में दर्ज हो चुका है। भारत में अनंतकाल तक अंग्रेजी के आरक्षण की संवैधानिक किलेबंदी के चलते, आखिर किस आधार पर संसद ने भारतीय भाषाओं को लागू करने संबंधी प्रस्ताव पारित किया? इस प्रस्ताव की वैधानिक स्थिति क्या है? संसदीय प्रस्तावों के प्रति स्वयं संसद की जिम्मेदारी एवं जवाबदेही क्या है? भाषायी मुद्दे पर जनता की भावनाओं के साथ पिछले 45 वर्षों से जारी इस संसदीय छल पर किसे कटघरे में खडा करें? और कौन करे? कौन देगा इन सवालों के जवाब?
कुछ ऐसे ही सवालों के उत्तरों की तलाश में, हिन्दुस्तान में अंग्रेजी को बलात थोपने के सबसे बडे़ केन्द,्र संघ लोक सेवा आयोग पर 16 अगस्त 1988 से विश्व के सबसे लम्बे धरने की शुरूआत हुई। संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षाऐं भारतीय भाषाओं में हो! भाषा आंदोलनकारियों की इस मांग से सहमति जताते हुए 175 संसद सदस्यों ने भी अपने हस्ताक्षरों से युक्त ज्ञापन तत्कालीन प्रधानमंत्री वी.पी.सिंह को दिया था। 12 मई 1994 को पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह के नेतृत्व में देश के सभी शीर्ष राजनीतिक नेताओं/दलों का सामूहिक धरना संघ लोक सेवा आयोग के मुख्य द्वार पर दिया गया। इसमें राष्ट्रीय समाचार पत्रों के सम्पादकों, 50 से अधिक संसद सदस्यों, विधायकों, पूर्व राज्यपालों सहित अनेक सामाजिक संगठनों ने हिस्सा लिया। इसी दिन संसद के दोनों सदनों में सभी दलों ने मुखर होकर भारतीय भाषाओं के सवाल पर अपना पक्ष रखा। लेकिन संविधान के अनुच्छेदों में पद, पैसा एवं प्रतिष्ठा केवल अंग्रेजी वर्ग के लिए आरक्षित कर दिये जाने की किसी ने चर्चा नहीं की। लिहाजा वह भाषायी आक्रोश हमेशा की तरह केवल रस्म अदायगी बन कर रह गया।
विवश होकर भाषा आंदोलनकारियों ने स्वयं संसद में भाषा के सवाल पर देश का ध्यान आकर्षित करने की योजना बनायी। 21 अप्रेल, 1989 एवं 10 जनवरी 1991 को आंदोलनकारी संसद में प्रवेश कर गये। नारेबाजी एवं पर्चे फेंकने की घटना के बीच एक आंदोलनकारी भी दर्शक दीर्घा से नीचे लोक सभा में कूद गया। नतीजा सिर्फ इतना निकला कि वह अपनी पसलियां तुडवाकर दो महीने अस्पताल में रहा और संसद ने 18 जनवरी 1968 के उस बेजान प्रस्ताव को पुनः अगले दिन ध्वनिमत से पारित कर अपने हाथ खडे़ कर दिये। संघ लोक सेवा आयोग पर चल रहे निरंतर धरने को लगभग 14 वर्ष हो चुके थे। इसी बीच अनेक सार्वजनिक कार्यक्रमों में प्रधानमंत्री एवं राष्ट्रपति से आंदोलनकारियों की सीधी झडपें भी हुई। अनेक विरोध प्रदर्शनों, आमरण अनशन एवं लम्बे धरने से आजीज आकर भारतीय भाषाओं को लागू करने के बजाय, अचानक सरकार की देखरेख में धरने को नेस्तनाबूद कर दिया गया, आंदोलकारियों का सामान, तम्बू आदि उखाडकर फेंक दिये गये। संसद द्वारा पारित प्रस्ताव को लागू करने के लिए चल रहे अनवरत सत्याग्रह को तहस-नहस करने की बर्बरतापूर्ण कार्यवाही पर किसी भी राजनीतिक दल एवं नेता ने अपना विरोध नहीं जताया। संसद में भाषाओं के सवाल पर मुखर रहने वाले नेताओं ने भी अपने मुंह सिल लिए थे। संसद एवं सर्वोच्च न्यायालय ने भी सचमुच आंखों पर पट्टी बांध ली थी। अंग्रेजी की इन पट्टियों को सारे हिन्दुस्तानी मिलकर नोंचे! संसद की चैखट पर पुनः ऐसी एक शुरूआत संघ लोक सेवा आयोग के कुछ जिंदा बचे पुराने सत्याग्रहियों ने कर दी है। ताकि संघ लोक सेवा आयोग एवं सर्वोच्च न्यायालय जैसे शीर्ष संवैधानिक संस्थानों से भारतीय भाषाओं की बहाली का मार्ग प्रशस्त होकर भारत के गांवों तक जाऐ। हमें आशा है कि आप देश की लोकशाही की हो रही इस दुर्दशा को देख कर शीघ्र ही देश को अंग्रेजी की गुलामी से मुक्ति दिलाने के अपने संवैधानिक दायित्व का निर्वहन करेंगे ।
संघ लोकसेवा आयोग द्वारा आयोजित सभी परीक्षाओं में अंग्रेजी का आरक्षण
सर्वोच्च न्यायालय व अधिकांश उच्च न्यायालय की तरह, संघ लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित सभी परीक्षाओं में अंग्रेजी का आरक्षण बरकरार है। जून 2011 से सिविल सेवा की प्रा. परीक्षा में 22.5 अंक का अंग्रेजी का प्रश्न पत्र अनिवार्य कर दिया गया है, अंग्रेजी एवं किसी एक भारतीय भाषा के अनिवार्य प्रश्नपत्र के अलावा। संसद से लेकर सड़क पर जनप्रतिनिधियों व प्रबुद्ध लोगों ने पुरजोर विरोध किया। इसके बाबजूद अंग्रेजी की सर्वोच्चता व भारतीय भाषाओं की उपेक्षा का षडयंत्र जारी है। सिविल सेवा के अलावा आयोग द्वारा ली जा रही अन्य अखिल भारतीय सेवाऐं, जिनमें भारतीय भाषाओं को पूरी तरह बाहर कर दिया गया है-
क्र.सं. परीक्षा माध्यम
1. सम्मिलित चिकित्सा सेवा परीक्षा अंग्रेजी
2. इंजीनियरिंग सेवा परीक्षा अंग्रेजी
3. भारतीय वन सेवा परीक्षा अंग्रेजी
4. स्पेशल क्लास रेलवे अप्रेंटिस परीक्षा अंग्रेजी
5. भारतीय आर्थिक सेवा अंग्रेजी
6. भारतीय सांख्यिकी सेवा परीक्षा अंग्रेजी
7. भूविज्ञानी परीक्षा अंग्रेजी
8. सम्मिलित रक्षा सेवा परीक्षा अंग्रेजी का 100 अंक का प्रश्न पत्र अनिवार्य
9. राष्ट्रीय रक्षा अकादमी अंग्रेजी का 100 अंक का प्रश्न पत्र अनिवार्य
10. केन्द्रिय पुलिस बल परीक्षा ...........................................
12. अनुभाग अधिकारी परीक्षा ...........................................
नोट- उपरोक्त परीक्षाओं के अलावा अन्य विभागीय परीक्षाओं में भी लिखित एवं साक्षात्कार में केवल अंग्रेजी का माध्यम है।
भारतीय भाषा आंदोलन
डा बलदेव वंशी                   पुष्पेन्द्र चैहान (संयोजक)                        देवसिंह रावत(महासचिव)
                                     दूरभाष- ; 9999590115. ;                          9910145367                          
महेशकांत पाठक (धरना प्रभारी)                                                         देवेन्द्र भगत