कलम से ज़ुल्म की कलाई मरोड़ना उन्हें बाखूबी आता था आता था
कोरोना ने हमसे बहुत ख़ास ख़ास लोग छीन लिए। शायरी, सियासत, कला, फ़िल्में शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र बचा हो जिसमें से कोई न कोई घर सूना न हुआ हो। इसी दुखद कड़ी में एक और नाम है जनाब अज़ीम का। बहुत करते थे। किसी का नाम चाहे इशारों से भी लें तो भी लिहाज़ नहीं करते थे। उनके इशारे भी अक्सर आसानी से समझ आ जाते कि किस किस चेहरे को बेनकाब कर रहे हैं। इस के बावजूद कभी भी तहज़ीब का साथ न छोड़ते। जैसे जैसे हालात नाज़ुक़ बनते गए वैसे वैसे अज़ीम साहिब की संवेदनशीलता भी बारीकी से बढ़ती गई। न तो अंदाज़ बदला न ही तेवर बदले। उनके जाने की दुखद जानकारी मिली है।
आज के हालात में जब उनकी ज़रूरत पहले से कहीं ज़्यादा थी तब वह रुखसत हो गए। आज के इस नाज़ुक दौर में जब सच कहना बेहद दुश्वार होता जा रहा है और बहुत से लोग खामोश रहने में ही भलाई समझने लगे हैं इसके बावजूद भी सोशल मीडिया पर अक्सर पूरी तरह बेबाकी से सरगर्म रहने वाली मोहतरमा तस्वीर नक़वी साहिबा से। वह बताती हैं:अलविदा अज़ीम अमरोहवी साहेब,बहुत कमी कर गए आप मेरे शहर अमरोहा में,पचास किताबों के लेखक ,बहुत अच्छे मर्सिय लिखते थे ,पढ़ते थे ,एक हरदिल अज़ीज़ शख्सियत,दो महीने बड़ी बहादुरी से कोविड से जंग लड़ी मगर हार गए,आप अमरोहा की तारीख में दर्ज हो गए हमेशा के लिए!!
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