Thursday, April 16, 2020

महिला सशक्तिकरण के दावों में एक कहानी यह भी

Posted on FB: Thursday: 16 April 2020 at 8:57 AM
...और उसने सारी दास्तान हिमांशु कुमार जी को लिख भेजी 
सोशल मीडिया//फेसबुक: 16 अप्रैल 2020: (हिंदी स्क्रीन डेस्क)::
बहुत से कलमकार हैं जिन्हें तकरीबन हर मामले में या तो अपने अपने दल के रंग की राजनीति नज़र आती है या फिर हिन्दू-सिख या हिन्दू मुस्लिम का नज़रिया जाग उठता है। समाज में और क्या क्या हो रहा है यह सब उन्हें नज़र नहीं आता या फिर वे इसे देखना ही नहीं चाहते। वे गोदी मीडिया बन जाते हैं या मनमौजी मीडिया। ऐसे माहौल में एक नाम है हिमांशु कुमार का जो इस बार भी लाये हैं एक ख़ास कहानी। जो रुलाती है, झंक्झौरती है, सवाल पूछती है,शर्मिंदा करती है। कहानी सच्ची है लेकिन नायका के आग्रह पर उसका नाम पता छुपा लिया गया है। पढ़ते हुए आंसू आएं तो आने देना। गुस्सा आये तो भी आने देना। आपको यह कहानी कैसी लगी अवश्य बताना। -रेक्टर कथूरिया
साभार चित्र 
फेसबुक पर आपकी पोस्ट पढ़कर आपके प्रगतिशील विचारों और आपके बच्चों के साथ आपके संबंधों से प्रभावित होकर आपको इनबाक्स में यह लिख रही हॅू।
प्रस्तुति:हिमांशु कुमार 
मैं आपके साथ अपनी कहानी साझा कर रही हूं यदि आप इसे सार्वजनिक रूप से लिखते हैं तो कृपया मेरा नाम और मेरी कंपनी का नाम मत लिखिए।

'एम ए पूरा करने के बाद मुझे रेडियो में टेंपरेरी उद्घोषक की नौकरी मिल गई थी मेरे परिवार ने मुझ पर शादी करने के लिए दबाव डालना शुरू किया।

मुझसे कहा गया कि मेरे ससुराल वाले तय करेंगे कि मुझे आगे पढ़ना है या नहीं।

मैंने अपनी जिंदगी के लिए किसी के हुक्म को मानने से इंकार कर दिया।

मेरे परिवार वालों ने मुझे गाली दी मेरे माता पिता और मेरा भाई मुझे बुरी तरह से पीटते थे।

मैंने घर में भूख हड़ताल की और ज़हर खाकर देखा, लेकिन शादी के लिए इंकार कर दिया।

मैंने कहा मैं अपने पैरों पर खड़ी होना चाहती हूं ताकि कोई मेरे साथ बुरा व्यवहार या मेरे सम्मान के साथ खिलवाड़ न कर सके जैसा आप लोगों ने मेरी मां के साथ किया।

मेरे परिवार के लिए यह सब असहनीय था।

अंत में एक दिन शाम के समय मुझे मेरे घर से बाहर फेंक दिया गया।

मैंने सिर्फ एक जोड़ी कपड़े पहने हुए थे।

मेरे पावों में मेरी चप्पल भी नहीं थी और ना मेरा चश्मा था।

मेरे पास कोई पैसा नहीं था।

मेरी सहेली अपने दो सूट लाई जो साइज में छोटे थे लेकिन मेरे बहुत काम आए 4 महीने बाद मैंने पटरी पर से जींस पैंट ली।

मुझे रेडियो में काम मिला मैं 3:00 बजे सुबह उठती थी 4:00 बजे ट्रेन पकड़ती थी 5:00 बजे काम शुरू करती थी

मेरे विश्वविद्यालय की बस दो दोस्त थीं।

मैं गैर कानूनी तौर पर अपनी एक जूनियर साथी के कमरे में छुप कर रही।

लेकिन एक दबंग समलैंगिक लड़की जो मुझे अपने कमरे में रखना चाहती थी उसने मेरे मना करने पर मेरी शिकायत वॉर्डन से कर दी।

मैं फिर से सड़क पर आ गई मेरी एक दोस्त मुझे अपने हॉस्टल में ले गई।

मैंने दो शिफ्ट में काम करना शुरू किया मैं चार-पांच दिन तक बिना सोए कई बार भूखी सोती थी।

मेरे माता पिता ने रिश्तेदारों से कहा हुआ था कि मैं हॉस्टल में रह रही हूं यह बात मुझे 2 साल बाद तब पता चली जब मेरे पड़ोसी मुझे मिले।

मेरे पिता ने मेरे संपादक को फोन किया और कहा कि मैं चरित्रहीन हूं मुझे नौकरी से निकाल दिया जाए।

एक दिन कमजोरी की वजह से मैं घर में बेहोश हो गई।

मेरा संपादक नेताओं को लड़कियां सप्लाई करने का धंधा करता था उसने मुझे वेश्यावृत्ति में जाने के लिए और आराम से कमाई करने के लिए कई इशारे किए।

जब मुझे इस सब के बारे में पता चला मैंने वहां से नौकरी छोड़ दी।

दो जगह काम करने के बाद मुझे एक बड़े टीवी चैनल में नौकरी मिली।

मेरे परिवार वाले मुझसे ईर्ष्या करते थे।

मेरी मां ने कहा कि वह पैसा देकर मेरा बलात्कार करवा देगी।

उस दिन मेरे मन से उन लोगों के लिए रहा सहा सम्मान भी समाप्त हो गया।

वह 1997 का साल था अब से चार साल पहले मैं उनसे मिलने गई उन्होंने मुझे नहीं पहुंचाना।

और मुझे घर में आने भी नहीं दिया।

अंत में वह इस बात के लिए राजी हो गए कि मुझसे बात करेंगे।

वह लोग उसी तरह से बात कर रहे थे और उसी तरह नाराज थे।

मैंने कोई गलती नहीं करी थी मैं घर से भागी नहीं ना मैं गर्भवती हुई।

उनके लिए सामाजिक तौर पर कोई ऐसा काम नहीं किया जिससे उन्हें शर्मिंदगी उठानी पड़ी।

लेकिन फिर भी वो नाराज है।

मेरा भाई जो आपने कैरियर में कुछ खास नहीं कर सका था वह मेरी हैसियत देखकर मुझसे जलन करने लगा।

मैं चैनल बदल कर आगे बढ़ती गई आज 24 साल बाद भी वह मुझसे उतनी ही नफरत करते हैं।

आज वह इस बात से ज्यादा नाराज है कि मैं इतनी अच्छी कमाई कैसे कर रही हूं।

मेरा इतना अच्छा घर कैसे हैं और मेरा मकान उनके बेटे को क्यों नहीं मिलेगा क्योंकि उनका बेटा ही उनका खानदान चलाएगा।

मेरे भाई के दो बेटियां हैं वे उनके साथ उदार है परंतु मेरे लिए नहीं।

मुझे लगातार मनोचिकित्सक की दवाइयां और इलाज कराते रहना पड़ता है।

मुझे अभी भी रात को सपने आते हैं कि मुझे घर से निकाला जा रहा है।

लेकिन मैं आज खुश हूं कि मैंने अपनी जिंदगी को अपनी शर्तों पर जिया।

मेरे पास तीन बिल्लियां है और कई आवारा पशु हैं जिन्हें मैंने बचाया है।

मेरा भाई आज भी मुझसे बातचीत करता है लेकिन वह कहता है तुम गलत थी।

मैंने उन्हें दूसरी बार मौका दिया लेकिन वह दूसरी बार भी फेल हो गए।

मेरे घर में लड़के और लड़की के बीच में भेद किया जाता है।

मेरा भाई मुझसे कहता था मुझसे बराबरी मत करो मैं लड़का हूं तुम लड़की हो।

मेरा भाई कहता है कि मैं उसके लिए प्रेरणा हूं हालांकि वह यह भी कहता है कि तुम ने हम सब को बहुत परेशानी में डाला और तुम इसलिए कर पाईं क्योंकि तुमने कुछ उसूलों के साथ समझौता नहीं किया।

1 दिन मेरा भाई पिताजी के साथ ऑफिस आया क्योंकि लोग कहते थे कि तुम्हारी बेटी कहां है हमें दिखाओ मेरा भाई चाहता था कि मैं वहां जाकर अपना मुंह दिखाऊं।

मैंने मना किया तो मुझे भाई ने बीच बाजार में थप्पड़ मारा मैंने पुलिस में रिपोर्ट कराई कि मेरी जान को इन लोगों से खतरा है।

मेरे परिवार वाले सोचते थे मैं पैसा नहीं कमा पाऊंगी इसलिए उन्होंने मुझे घर से निकाला।

लेकिन जब हमारे पड़ोसियों और रिश्तेदारों ने कहा कि तुम्हारी बेटी तो बहुत अच्छे से है तो मेरे परिवार वाले ज्यादा परेशान हुए।

दो साल से मेरा एक पुरुष मित्र हैं और मैं उसके साथ बहुत खुश हूं।


Wednesday, April 8, 2020

क्रिएटिव राइटर्स ग्रुप ने लॉक डाउन के दौर में भी कराया मुशायरा

इस बार का विषय था पत्ते, जिन पर बहुत ही खूबसूरती से लिखा गया
लुधियाना: 7 अप्रैल 2020: (रेक्टर कथूरिया//हिंदी स्क्रीन)::
कोरोना का कहर टूटा तो इससे बचाव के लिए लॉक डाऊन सबसे आवश्यक था। लॉक डाउन के बिना कोई और चारा  भी नहीं था लेकिन इसके लागू होते ही ज़िंदगी थम सी गई। लोग अपने अपने घरों में कैद हो कर रह गए। कोरोना के कारण हुए इस लॉक डाउन में हालत नज़रबंदी जैसी हो कर रह गई। दुनिया की रफ्तार एक दम थम गई। इस थमे हुए माहौल में वे लोग फिर भी सक्रिय रहे जो थमने जानते ही नहीं। वे लोग जिन्हें तूफानों के सामने चिराग जलाने की हिम्मत नसीब में मिली है। जो वे लॉक डाउन की पालना करते हुए नहीं थमे। घरों में कैद हो कर भी वे  नहीं रुके। उनकी सोच चलती रही। उनके जज़्बात चलते रहे। उनकी कलम भी चलती रही। कोरोना ने उन्हें अपने अपने घरों में कैद तो करवा दिया लेकिन उनके ख्यालों की उड़ान जारी रही। युवा कलमकारों के दिलों की धड़कन जसप्रीत कौर फलक ने इस दिशा में बहुत ही शिद्दत से सोच विचार की। इस गहरी सोच विचार के बाद एक स्पेशल किस्म का आईडिया उनके दिमाग में उतरा। बात बहुत ज़बरदस्त थी लेकिन उसे प्रेक्टिस में लाना आसान भी नहीं था। इसे सोचना तो  मुश्किल था ही लेकिन इसे लागू करके दिखाना और भी मुश्किल था। फिर उन्होंने यह आईडिया वरिष्ठ कलमकार और विज्ञानी डाक्टर जगतार सिंह धीमान के साथ भी शेयर किया और इसकी सफलता के लिए उनका आशीर्वाद मांगा।  बात डाक्टर धीमान के भी दिल को लगी। उन्होंने भी इस पर गंभीरता से सोचा। उनके अंतरमन में बैठे कवि ने इसे अपने ढंग से सोचा, उम्र भर विज्ञान का अध्यन करने वाली सोच के सिस्टम ने अपने ढंग से सोचा और रजिस्ट्रार के पद पर बैठे प्रशासक ने अपने नज़रिये से अपना मशवरा दिया। फैसला हुआ कि अपने अपने घर में बैठ कर साहित्य की सरगर्मी चलाई जाये। एक ऑनलाइन मुशायरा शुरू किया जाये जिसमें नयी उम्र के कलमकारों को पहल दी जाये। बस यहीं से शुरू हुआ एक विशेष मुशायरा। इसमें कोरोना का दर्द भी था,कोरोना की बंदिशें भी और लॉक डाउन की ज़िंदगी के कड़वे मीठे अनुभव भी। यह आइडिया पत्रकारिता में उम्र गुजरने वाले अश्वनी जेतली को भी बेहद जचा और उन्होंने आखिर मूल तौर पर तो वह भी शायर ही ठहरे। शायरी ने युवा अवस्था में ही बहुत जनून में थी और बाद में पत्रकारिता ने भी अपना रंग उनकी शख्सियत में जोड़ दिया। वह भी इस काफिले में शामिल हो गए। उसके बाद शुरू लॉक डाऊन के नियमों की पालना करते हुए मुशायरा कराने का सिलसिला। अब यह सिलसिला हर रोज़ चलता है। हर रोज़ ही कोई नया विष भी सुझाया जाता है। नयी कलमों प्रोत्साहित करने के लिए उनका मार्गदर्शन भी होता है और आलोचना भी। देखिये इसका थोड़ा सा रंग यहाँ भी , इन रचनाओं को विस्तृत रूप से अलग से भी प्रकाशित किया जा रहा है। साहित्य स्क्रीन में भी। 
जब इस ग्रुप में पत्तों पर कुछ लिखने को कहा गया तो गुरवीर सियाण ने लिखा:
पत्तों जैसे बन सकते हो क्या..!
हवाओं से लड़ सकते हो क्या..!
है क्या तुझमें इतनी क़ुव्वत..!
खुशी-खुशी झड सकते हो क्या..!
पत्तों जैसे बन सकते हो क्या..!
इसी तरह सिद्धार्थ ने भी इसी विषय पर बहुत ही सफलता से अपना हाथ आज़माया। उन्होंने कहा:
 बात पेंड़ो की,शाखा की हर कोई करता है,
बिछड़े हुए पत्तों की कौन सुना करता है।।
ये जो नए हैं डाली पर शान से खड़े हैं,
कल गिर जो गए तो बेजान से पड़े हैं।।
कालेज की छात्रा नवयोवना शायरा सारा सैफी ने तो कमाल ही कर दिया। भावनायों को बहुत ही संगीतमय अंदाज़ में प्रस्तुत करते हुए आज के इंसान पर गहरी चोट भी की:
सूखा पत्ता तेज़ हवा से 
उड़कर मेरे घर आया
इक ठोकर से मैनें उसको
जब आगे को सरकाया

बोला यूँ ना ठुकरा मुझको
मुझ पर भी हरियाली थी
पँछी भी सब खुश थे मुझसे
खुश मुझसे हर डाली थी
मैं तपता था कड़ी धूप में
करता था तुम पर साया

आज भी आग में जलकर मैं
सेक तुम्हें दे सकता हूँ
अपने ऊपर आज भी तेरे
 दुःख सारे ले सकता हूँ
 वो तो एक इन्सान है जिसने
 काम लिया और ठुकराया
सरू जैन साहिबा ने भी कमाल के अंदाज़ में अपनी बात कही। ज़रा आप भी पढिये:
यह सच है टूटा पत्ता
वापिस नहीं आता शाख़ पर।                                                             
पर नयी कोंपले फूटी                                         
अक्सर पतझड़ के बाद ही।
यह पत्ता टूटकर भी वफ़ा ही करे।                 
कितनी सुंदर चाह लिए दिल में।                         
चाहे मैं बिछुड़ूँ भी पेड़ से;                                 
फिर भी यह तो हरा भरा रहे।
इसी तरह कार्तिका सिंह ने भी पत्तों पर लिखते हुए उम्र और इंसानी ज़िंदगी की व्यथा को ही लिखा:
 पत्ते बस पत्ते होते हैं!
उग आते हैं--झड़ जाते हैं!
हरे रंग से पीले रंग तक 
रोज़ कहानी कह जाते हैं!
बात पते की कह जाते हैं!