Sunday, June 21, 2020

अपनत्व को गले लगाएं, अंकों को नहीं

थोड़ा सा अपनापन और तनाव छू-मंतर 

लुधियाना: 21 जून 2020: (*रुबिता अरोड़ा//हिंदी स्क्रीन)::

लेखिका रुबिता अरोड़ा 

आज रिया का बाहरवीं का नतीजा आने वाला है। मां-पापा की इच्छा है कि  रिया 90% से अधिक अंक लेकर इंजीनियरिंग करे। उधर रिया का दिल बैठा जा रहा है। परीक्षा पेपर मुश्किल थे तो ज्यादा अच्छा नहीं कर पाई थी। डर के मारे बुरा हाल था। खाना-पीना छोड दरवाजा बंद कर यही सोच रही हैं अब क्या होगा? पापा ने साफ शब्दों में कहा था किसी भी हालत मे 90% से कम अंक नहीं आने चाहिए। रिया की शुरू से ही पढाई में कम और नृत्य में ज्यादा रूचि थी पर पापा को पसंद नहीं था। साफ शब्दों में कहा-कुछ नहीं रखा नृत्य में और न ही अच्छे परिवार की लडकियों को शोभा देता है। इसे भूलकर पढाई में मन लगाओ और फिर रिया मन-मसोस कर रह गई। उसे याद आ रहा था इम्तिहान शुरू होने से कुछ रोज पहले चाचा परिवार सहित उनके घर आए। कितना मन था चचेरी बहनों साथ ढेरों बातें करने का पर मां ने कहा अपने कमरे में जाकर पढाई करो। चाची ने रोकना चाहा पर मां नही मानी। पिछले छह महीनों में उसे नहीं याद कभी घर से बाहर निकल कोई मस्ती की हो या फिर टैलीविजन में कोई मनपसंद कार्यक्रम देख पाई हो। हर वक्त बस एक ही बात सुनने को मिलती पढो पढो बस पढो। तंग आ चुकी थी पढाई से। सोचा जैसे-तैसे इम्तिहान हो गए तो शायद कुछ चैन मिले पर अगले दिन पापा ने कहा एंटरैंस की तैयारी शुरू कर दो। मतलब फिर से पढो और आज तो रिया को साफ पता था वह मां-पापा की उम्मीदों पर खरी नहीं उतर पायेगी। न जाने क्या क्या सुनना पडेगा। 

दोस्तों आज रिया जैसे न जाने कितने बच्चे तनावग्रस्त माहौल में जी रहे हैं।  कारण कोई और नही उनके अपने अभिभावक है, जो आज इतने स्वार्थी हो चुके है कि अपनी इच्छाएं बच्चों पर थोंप देते है, बिना सोचे समझे कि बच्चे क्या चाहते हैं।  नतीजा तनाव रूपी राक्षस हमारे समाज में सिर चढ नाच रहा है। हम क्यों भूल गए परिवार में या फिर हमउम्र दोस्तों के साथ रहकर बच्चे वे सब कुछ अपने-आप सीख सकते हैं जो किताबें नहीं सिखा सकती। जिस प्रकार बहता पानी अपना रास्ता खुद ढूंढ लेता है ठीक वैसे ही हमारे बच्चे भी अपना भविष्य खुद बना सकते हैं। आइये आज से ही इन नन्ही कलियों को पूरा खिलने की आजादी दे अपना प्यार, दोस्ती, अपनापन देकर। जहां तनाव हमारे अपनों को हमसे छीन रहा है वही थोडा सा अपनापन हमें उनके बहुत करीब ला देगा।

 *रुबिता अरोड़ा एक शिक्षिका के तौर पर कार्यरत हैं

Friday, June 12, 2020

एक कटोरी सब्जी : रुबिता अरोड़ा

ज्यादा निकटता कहीं जी का जंजाल  न बन जाये !!!

लुधियाना: 12 जून, 2020: (*रुबिता अरोड़ा)::
लेखिका : रुबिता अरोड़ा 
मेरा बचपन बेहद गरीबी मे बीता। पिता जी नहीं थे माँ मेहनत करके घर का खर्चा चलाती। घर मे आर्थिक तगी के चलते मेरीे स्कूल की फीस, कापी किताबों का खर्च उठाना माँ के लिए बहुत मुश्किल हो फिर भी माँ के चेहरे पर एक भी शिकन देखने को न मिलती। उनका बस एक ही सपना था मैं पढलिख कर अपने पैरों पर खडी हो जाऊ।खाने के नाम पर तो हम माँ बेटी रूखासूखा खाकर ही खुश हो लेती। तभी हमारे पडोस मे शर्मा आन्टी रहने को आई। पढी लिखी, समझदार, बाणी मे प्रेम सभी गुण तो थे उनमें। एक दिन जब वे हमारे घर आई तो हम माँ बेटी खाना खा रही थी। हमारी थाली मे पडे खाने को देखकर उन्हें बहुत बुरा लगा। वे झट से अपने घर से खाना ले आई। माँ ने मना करने की बहुत कोशिश की लेकिन उनके हठ के आगे एक न चली। उनके हाथ का बना स्वादिष्ट खाना खाकर मेरी तो आत्मा ही जैसे तृप्त हो गई औऱ फिर उस दिन से शुरू हो गया शर्मा आन्टी के घर से कटोरियो का आना जाना। वे जब भी कुछ अच्छा बनाती पहले हमारे घर देने जरूर आती। माँ ने कई बार सकोच दिखाया पर वे न मानी। अब तो अक्सर वे हमारे घर आती, बडे प्यार से मुझे पास बिठाकर खाना खिलाती,पढाई मे भी पूरी मदद करती। माँ की बिमारी हो या मेरी परिक्षा मुझे पूरा सहयोग मिलता। मेरे लिए तो वे मेरी दूसरी माँ जैसी थी। समय बीतता गया। मै उच्च शिक्षा के लिए शहर आ गई। उनके भी पति का तबादला कहीं औऱ हो गया। फिर हम कभी मिल तो न पाई लेकिन जो अपनापन मुझे उनसे मिला, शायद कोई अपना भी नहीं दे पाता। आज मै उच्च पद पर कार्यरत हूँ लेकिन यहाँ तक पँहुच कर जो कामयाबी मुझे मिली इसमें आँटी का बहुत बडा हाथ है।
अभी कुछ दिन पहले हम यहाँ नई कालोनी मे रहने आए। मैंने दफ्तर से दो दिन की छुट्टी ले ली ताकि अपना सामान सही से जमा लूँ। पति को दफ्तर व बच्चों को स्कूल भेजने के बाद अभी अपना काम शुरू ही किया था कि डोरबैल बजी। पास मे रहने वाली मिसेज खन्ना हाथ मे सब्जी की कटोरी लिए मुझसे मिलने आई। उनका अभिवादन किया औऱ फिर शुरू हुआ उनकी बातों का सिलसिला या यूँ कहो पास मे रहने वाली मिसेन खुराना की बुराइयों का सिलसिला, जो खत्म होने का नाम ही नही ले रहा था। तकरीबन तीन घंटे बीतने के बाद मिसेज खन्ना यह कहते हुए अपने घर गई कि अभी आपको बहुत काम है, सो जल्दी जा रही है, फिर कभी बैठकर ढेरों बातें करेगी। दोपहर हो चुकी थी। बच्चे स्कूल से आते होगे यह सोचकर खाना बनाने मे जुट गई बाकी काम यूँ का त्यों पडा रहा। अगले दिन बडी उम्मीद से शुरू किया तभी हाथ मे कटोरी लिए इस बार मिसेज खुराना चली आई। फिर से बातों का सिलसिला चला। इस बार मिसेज खन्ना की बुराइयाँ मुख्य विषय रही। जैसे तैसे उन्हें उनके घर भेज कर मैंने चैन की साँस ली। ये दो सब्जी की कटोरियाँ मेरे लिए जी का जन्जाल बन चुकी थी। मैंने इन दो छुट्टियों मे जो काम करने थे वे सब धरे के धरे रह गए।मैं सोच रही थी समय बीतने के साथ इन सब्जी की कटोरियो के स्वरूप मे कितना परिवर्तन आ गया है। पहले जहां सब्जी की कटोरी मे अपनेपन,प्रेम, समर्पण की भावना होती थी वही आज नफरत, स्वार्थ, ईष्या का तडका लगाया जाता है। अगले दिन हम सुबह पार्क मे मार्निग वाक के लिए निकले तो साथ मे दोनों कटोरियाँ भी उठा ली। कुछ ही दूरी पर मिसेज खन्ना औऱ फिर मिसेज खुराना भी मिल गई। हमने उनको धन्यवाद देते हुए उनकी कटोरियाँ वापस की औऱ साथ ही विनम्रता से कहा हम तो नौकरी पेशा है सुबह दफ्तर के लिए निकलते है तो शाम तक ही घर लौटते है। माफ कीजिये लेकिन ये कटोरियो के लेनदेन का सिलसिला आगे नहीं बढा सकते। निरसदेह पडोसी एक दूसरे के सुख दुख के साथी होते है लेकिन एक दूसरे की चुगलियाँ करना या इधर उधर की हाँकने के लिए आज की सभ्य व शिक्षित पीढी के पास समय ही कहाँ है। --*रुबिता अरोड़ा   
*रुबिता अरोड़ा एक शिक्षिका के तौर पर कार्यरत हैं।  

Monday, June 1, 2020

भरोसा अपनी परवरिश पर

संतान का मार्गदर्शक बने, मार्गभक्षक नही

लुधियाना: 23 मई, 2020:: (*रुबिता अरोड़ा)::
लेखिका : रुबिता अरोड़ा 
मैं स्कूल से छुट्टी लेकर घर आई। सोचा कुछ देर आराम करूँगी तभी फोन की घंटी बजी। फोन मेरी पुरानी सहेली ज्योति का था। मुझसे मिलना चाहती थी। मैंने उसे शाम को घर आने को कहा। शाम ठीक पाँच बजे ज्योति अपने दो छोटे छोटे बच्चों के साथ मेरे घर आई। दोनों बच्चे इतने प्यारे थे कि उनसे नजर ही नहीं हट रही थी। मैंने बच्चों से बात शुरू की। बड़ा बेटा रियान पाँचवी मे व छोटी बेटी सुनैना तीसरी मे पढती है। कुछ देर इधर उधर की बातें करने के बाद ज्योति ने अपनी परेशानी मेरे साथ शेयर की। उसका मानना था कि उसके बच्चे पढाई मे बिलकुल रूचि नहीं ले रहे। बहुत कोशिश करने के बाद भी परिक्षा मे अच्छे अन्क नहीं लाते। शायद उनके दिमाग ही कमजोर है। उसने कहा कि वह उनके भविष्य को लेकर बहुत परेशान है। एक ही झटके मे ज्योति ने इतनी सारी बातें बोल तो दी लेकिन मैं यह सब सुनकर बहुत आहत हुई। वो दो छोटे छोटे बच्चे जिनके साथ बचपन भी अभी अठखेलियाँ करता नहीं थका उनके लिए इतना सब कुछ कह दिया ज्योति ने। क्या परिक्षा मे कम अंक आने से यह निष्कर्ष निकालना उचित है कि बच्चों के पास दिमाग कम है या ये बच्चे भविष्य मे कुछ नहीं कर सकते।  क्या तीन घंटे की परीक्षा मे आने वाले अंक किसी बच्चे की प्रतिभा को देखने का मापदंड हो सकते है। अरे बालमन तो कच्ची गीली मिट्टी की तरह होता है जिसे थोड़ी सी मेहनत करके मनचाहा आकार दिया जा सकता है। एक पौधे को अगर सही पोषण मिलेगा तो वह समय के साथ साथ एक दिन मजबूत पेड़ बनेगा। लेकिन अगर किसी पौधे को पोषण देने की बजाय कमजोर मानकर अनदेखा किया जाए तो एक दिन जरूर मुरझा जाएगा। लगातार प्रयास करते रहने से तो एक दिन असंभव भी संभव हो जाता है, फिर क्या हम बच्चों पर लगातार मेहनत नहीं कर सकते। ये सच है कि जिस प्रकार हाथों की पाँचो उगलियाँ एक समान नहीं होतीं ठीक उसी प्रकार हर बच्चे के सीखने का ढंग, उसकी ऊर्जा शक्ति भी अलग अलग हो सकती है। जरूरत है बस अपने बच्चो को थोड़ा समझने की,उन्हे वक्त देने की,उनके अन्दर छुपी प्रतिभा को बाहर निकालने की,फिर यही बच्चे अपना भविष्य खुद बनाते है। इसके इलावा यह भी जरूरी नहीं कि हर बच्चा अच्छा पढ लिख कर ही अपना भविष्य बना सकता है।हमारे सामने ऐसे सैकड़ों उदाहरण है, जिन्होंने कम पढे लिखे होने के बावजूद अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया। अतः ज्योति जैसे माँ बाप से मै यही कह सकती हूँ कि अपने बच्चों पर भरोसा रखिए, आपको उनका मार्गदर्शक बनना है, मार्गभक्षक नही। सबसे बडी बात हमारे बच्चे हमारा ही अक्स है, सो भरोसा रखिए अपने आप पर,अपनी परवरिश पर।--*रुबिता अरोड़ा 
*रुबिता अरोड़ा व्यवसायिक तौर पर शिक्षिका हैं।