Monday, July 20, 2020

मंजुल भारदवाज ने मज़दूर यूनियनों को भी आड़े हाथों लिया

 पैदल चलते इस सत्याग्रह की शुरुआत किसी ने नहीं की 
मुंबई: (सायली पावसकर रंगकर्मी//हिंदी स्क्रीन)::
आज के इस दौर में जहां बाज़ारवाद, भूमंडलीकरण लोकतंत्र के मूल्यों को नष्ट कर रहा है, जहां समाज असंवेदनशील होकर तालियां और थालियां बजा रहा है, जहां जनप्रतिनिधि बुनियादी, कल्याणकारी सेवाएं प्रदान करने के बजाय केवल घोषणा कर रहें हैं, वहां मजदूर गांधी के अहिंसा के मार्ग का अनुसरण कर रहें हैं।  इस विचार को ध्यान में रखते हुए, मंजुल भारद्वाज जैसे रचनाकार अपने कार्यों से न्याय, समता और समानता के मूल्यों को भारतीय लोकतंत्र के जड़ों से जोड़  कर नए राजनैतिक सूत्रपात को प्रस्थापित कर रहें हैं।
इन मुद्दों का यहां पूरी तरह से विश्लेषण हो, कि जिन मजदूरों के नाम पर इतने सारे ट्रेड यूनियन और मज़दूर यूनियन खड़े हैं, वे श्रमिकों में इस दृष्टि को जागृत करने और उन्हें अपनी ताकत का एहसास कराने में सक्षम नहीं हो पाए। "यूनियन" मालिकों और सरकार से लड़ती है। मज़दूर यूनियन पेंशन और अधिकारों के लिए लड़ती है। पैदल चलते इस सत्याग्रह की शुरुआत किसी ने नहीं की थी। घर जाने की उनकी प्रतिबद्धता, यह उनके होने की और उनके सुरक्षा की प्राथमिकता थी।  इसीलिए ये मज़दूर बिना किसी आंदोलन या मोर्चा के संगठित हुए। 
भारत आत्मनिर्भर था जब गांव समृद्ध थे। गांव के किसान आज भी विश्व के पोषणकर्ता हैं। राजनैतिक वर्चस्ववाद ने, अपने विकास को बेचने के लिए नव उदारवादी विचारों से शहर निर्माण किए। परजीवी शहरों ने भूमंडलीकरण के बाजारों को सींचा। आज भी अपने गांव स्वावलंबी हैं। हमारे सत्ताधीश जिस आत्मनिर्भरता की बात कर रहें हैं, उनका खोखलापन और भाषणबाजी की निरर्थकता को दर्शाने वाली यह रचना ..
क्रूर मज़ाक और मौन भारत! नामक काव्य रचना में मंजुल भारदवाज कहते हैं:
थोथा चना बजा घना
मज़दूरों की मौत
मज़दूरों का पलायन
और
‘आत्म निर्भर भारत’
मोदी का क्रूर मज़ाक!
अंतर जान लीजिये
संसाधन हीन मज़दूर
साधन सम्पन्न मोदी
संकल्प हीन मोदी
संकल्पबद्ध मज़दूर
रस्ते पर बच्चे को
जन्म देती माँ
ग़रीबों को बच्चों को
मौत देता मोदी
श्रमिकों को बर्बाद करने के लिए
12 घंटे का बंधुआ गुलाम बनाता मोदी
पूंजीपतियों को 20 लाख करोड़
मज़दूर रस्ते पर पैसे पैसे को मोहताज़
संकट काल में
देश में निर्मित चप्पल पर
चलता आत्म निर्भर भारत
मौन भारत ने आज
अपने टीवी पर
फिर सुना
प्रधान का क्रूर मज़ाक है !
लेखिका सायली पावसकर रंगकर्मी
मैं पिछले कुछ दिनों से इस प्रणाली की कमज़ोरी को महसूस कर रही हूँ, हम सभी कोरोना के साथ अपने जुनून और अथक प्रयासों से लड़ रहें हैं। लेकिन भूख, भय, भ्रम और मूल कारणों पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय दिशा बदलने के कई प्रयास सामने आ रहें हैं। संवेदनहीन होकर मन को परेशान करने वाले सवालों को अनदेखा नहीं कर सकते, उन्हें अपनी कला के माध्यम से, रचनाओं के माध्यम से, हम रंगकर्मी अभिव्यक्त कर रहें हैं,  इनपर चर्चा-विचार मंथन करके इन मुद्दों को एक सार्थक दिशा दे रहें हैं जिससे हम भी स्वस्थ रहें और विश्व भी।
सच हमेशा कड़वा होता है इसलिए सच्चाई को सवालों के स्वरूप में सामने रखना पड़ता है, जिसकी आज जरूरत है।  आज व्यवस्था के खोखलेपन पर प्रश्न उठाना आवश्यक है, क्योंकि यदि इन प्रश्नों का अब हल नहीं निकाला, तो वे अधिक भयानक रूप में सामने आएंगे।  इसलिए मेरे लिए इन सवालों को स्वीकारना और इनका सामना करना बहुत सकारात्मक है।  इन कविताओं के माध्यम से, कवि हम सभी से पूछता है कि हम इन सवालों में, यथार्थ में, न्याय और समता के कलात्मक रंगकर्म में और मजदूरों के संघर्ष में कहां हैं? (क्रमशः) बाकी अगली पोस्ट में
लेखिका:
सायली पावसकर रंगकर्मी
pawaskarsayali31@gmail.com
स्टेज के महारथी मंजुल भरद्वाज से सम्पर्क का ईमेल पता है:Manjul Bhardwaj <etftor@gmail.com>

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