Saturday, July 18, 2020

मंजुल भारद्वाज की कविताओं ने मोड़ा राजनैतिक बहस का रुख!

Sunday: 28th June 2020 at 8:00 PM to medialink32@gmail.com
 सत्ता और पूंजीवादी व्यवस्था नग्न रूप में सामने आ गए हैं  
अन्न के एक एक दाने को मोहताज हो गई देश की श्रमिक जनता-आखिर कौन है ज़िम्मेदार?
मुंबई: (सायली पावसकर रंगकर्मी//हिंदी स्क्रीन)::
कला के ज़रिये क्रांति को समर्पित मंजुल भारदवाज
आपदा मनुष्य को एक नयी पहचान देती है। आज की विकट स्थिति ने समाज, मानव प्रकृति और व्यवस्था के असली चेहरे को उजागर किया है, ऐसी स्थिति आमतौर पर हमारे सामने नहीं आती और यह दुनिया के इतिहास में पहली बार है (कम से कम मेरे जीवन में मैंने इसे पहली बार देखा और अनुभव किया है) जहां सत्ता, संविधान, व्यवस्था, सामाजिक स्थिति, मानवी प्रवृत्ति के विभिन्न पहलू सामने आ रहें हैं।
आज, पूरे विश्व के सामने प्रकृति में हस्तक्षेप के परिणामस्वरूप, 'कोरोना' यह आपदा हमारे सामने है।  इस आपदा ने पूरी दुनिया में एक बड़ी आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक और मनोवैज्ञानिक तबाही का प्रभाव डाला है। यह तबाही बिना किसी भेदभाव के सभी को प्रभावित कर रही है।  जीवन बचाने का संघर्ष सभी का अनवरत जारी है।
उत्पन्न हुई आपदा के कारण समाज में सभी लोग जिम्मेदारी से काम कर रहें हैं।  स्वास्थ्य कर्मी जान बचाने के लिए काम कर रहें हैं। जरूरतमंदों की मदद के लिए सेवार्थी संगठन कार्य कर रहें हैं। लेकिन मौलिक मानवी अधिकारों के लिए कौन लड़ रहा है? जो स्थिति उत्पन्न हुई है, उसकी जड़ में कौन जा रहा है?  उसका निष्पक्ष विश्लेषण कौन कर रहा है?
लेखिका सायली पावसकर रंगकर्मी
किसी आपदा से उभरने के लिए समेकित प्रयास की आवश्यकता है। आज हमारे पास कितना भी धन या विलासिता क्यों न हो, स्वास्थ्य सेवाएं और कल्याणकारी राज्य संस्थाएं बहुमूल्य संसाधन हैं और ऐसी आपदाओं के समय उनकी अपरिहार्यता सिद्ध होती है। आज काल इंसानों पर कहर ढा रहा है, लेकिन इस काल को इंसान ने स्वयं निर्माण किया है।  मानवता को नष्ट करनेवाला यह भूमंडलीकरण का भयावह काल है!
फासीवादी शासन और उनका शासक, लोकतंत्र का भीड़तंत्र में परिवर्तन होना, धार्मिक रंगों के साथ समाज को लगातार विभाजित करती पूंजीवादी दलालों की मीडिया, समाज संवेदनहीन हो रहा है, वहाँ "मानवता" अपनी अंतिम सांसे ले रही है । इन आपदाओं से निपटने के दौरान हमारी व्यवस्था की खामियां हमारे सामने आयी हैं।  अब मुख्य मुद्दा यह है कि क्या इन खामियों को नजरअंदाज किया जाए या उन्हें महत्वपूर्ण बिंदुओं के रूप में प्रस्तुत किया जाए।  इस तरह के और कई मुद्दे सामने आने हैं, लेकिन वे सामने नहीं आ पाते।
ऐसे समय में, कलाकार, रचनाकार, नाटककार और साहित्यकार इनकी विशेष भूमिका है, जहाँ वे अपनी कला को माध्यम बनाते हुए अपने साहित्य रचनाओं के माध्यम से हेतुपूर्ण मौलिक प्रश्न, मौलिक अधिकार और उद्देश्य प्रस्तुत करेंगे। कलासत्व को मानवता के लिए एवं विश्व के सौहार्द के लिए रचनेवाले सृजनकार शाश्वत विचार स्वरूप इस काल से लड़ते हैं । इसी भूमिका के लिए रंगचिंतक मंजुल भारद्वाज प्रतिबद्ध हैं ।
मज़दूरों के साथ हो रहे इस घातक प्रकरण के बारे में सभी को सहानुभूति है । आज के परिस्थिति में भी मज़दूरों के मुद्दे, उनके प्रश्न विकास के जुमलों में फंसे हैं। पहले ही मजदूरों कि यह हालत, उसपर उनके मौलिक अधिकारों का हनन, इससे यह स्पष्ट होता है कि, मजदूरों का इस यंत्रणा में कोई स्थान नहीं।
इस तथ्य से कोई इनकार नहीं करता है कि यह बीमारी ऊपरी और मध्यम वर्गों से शोषित-गरीब वर्गों तक फैल गई है।  फिर भी, गरीब और मजदूर, शोषित और पीड़ित हैं।  कुल मिलाकर, यह स्पष्ट है कि नव-उदारवादी व्यवस्था में, राजनैतिक क्षेत्र और समाज में श्रमिकों के लिए कोई सहवेदना नहीं बची है।  क्योंकि राजनैतिक कोष होने के बावजूद, मजदूर चलने के लिए मजबूर हैं।  भले ही धान के गोदाम भरे पड़े हैं, फिर भी भुखमरी होती है।  यह भूमंडलीकरण का भयावह सच है।
मंजुल भारद्वाज सर के अंदर बेचैनी थी, उनके अंदर का एक हिस्सा जहां विश्वास था, आस्था थी। उन्होंने इस तबाही में संसद, न्यायपालिका, इनके संवेदनहीनता को महसूस किया।  सत्ता और पूंजीवादी व्यवस्था नग्न रूप में सामने आ गए। लॉकडाउन में प्रगतिशील, बुद्धिजीवी, परिवर्तनवादी, मध्यम वर्ग सभी घर में तालेबंद हैं।  लेकिन ये मजदूर जहां मार्ग दिखा, उस दिशा में चल रहें हैं, तेज धूप में भोजन और पानी के बिना।  क्योंकि वे सरकार की शर्तों पर जीने को तैयार नहीं हैं।  वे जानवरों की तरह नहीं रहना चाहते। वे नए तरीके खोज रहें हैं और यह उनका एक सचेत आंदोलन है।  यह नयी, अनोखी, अलग दृष्टि मंजुल जी की कविता से व्यक्त होती है।
जहां मध्यम वर्ग इस बात पर सहमत था कि थाली और ताली पीट कर, दीये जलाकर सब कुछ पहले जैसे हो जाएगा, वहां सरकार मज़दूरों की पहल से हिल गई। मज़दूरों ने सरकार को जवाबदेही के लिए मजबूर किया।
एकांत की परिधि को भेदते हुए यह कवि अपने जीवित होने का अर्थ तलाश रहा है।  वह मानवीय प्रवृत्ति, यथार्थ, संवेदनाओं, पाखंडी सत्ता और मृत्यु का वर्णन अपनी काव्य रचनाओ में उजागर करता है।
  मंजुल भारद्वाज का एक काव्य अंदाज़ देखियेअपने ज़िंदा होने पर शर्मिंदा हूँ !
  आजकल मैं श्मशान में हूँ
  कब्रिस्तान में हूँ
 सरकार का मुखिया हत्यारा है
 सरकार हत्यारी है
 अपने नागरिकों को मार रही है
 सरकारी अमला गिद्ध है
 नोंच रहा है मृत लाशों को
 देश का मुखिया गुफ़ा में छिपा है
 भक्त अभी भी कीर्तन कर रहे हैं
 इस त्रासदी पर
देश की सेना पुष्प वर्षा कर रही है
बैंड बजा रही है
मैं हूँ जलाई और दफनाई
लाशें गिन रहा हूँ
रोज़ ज़िंदा होने की
शर्मिंदगी महसूस कर रहा हूँ
क्या क्या गुमान था
कोई संविधान था
कोई न्याय का मंदिर था
एक संसद थी
कभी एक लोकतंत्र था
आज सभी मर चुके हैं
ज़िंदा है सिर्फ़ मौत !
मज़दूरों के सत्याग्रह ने जीवन संघर्ष की मशाल जलाई। इसने मृत लोकतंत्र को पुनर्जीवित किया।  आज, उन्होंने अपनी विवशता को अपना हथियार बना लिया है, मौत से लड़ रहें हैं। जीने के लिए, मानवता को जिंदा रखने के लिए! क्रमशः बाकी अगली पोस्ट में
लेखिका:
सायली पावसकर रंगकर्मी
pawaskarsayali31@gmail.com
स्टेज के महारथी मंजुल भरद्वाज से सम्पर्क का ईमेल पता है:Manjul Bhardwaj <etftor@gmail.com> 

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