Friday, December 11, 2020

किसान आंदोलन ने उत्साहित किया है संघर्षों के साहित्य सृजन को

 पढिए डा.चित्रलेखा की नयी काव्य रचना 

इस तस्वीर को क्लिक किया है हमेशां से ही सत्य  के साथ खड़ी होने वाली डा. जगदीश  कौर ने 

डाॅoचित्रलेखा

धरती है बिछौना

 रजाई आसमान

 खाएं रोटी-दाल

 हम हैं किसान।

 नए कानून से थोड़ा 

 हम-सब हैं हलकान

 पूंजीपति से मुक्त करो

 हम मेहनतकश इंसान। 

 काहे को झगड़ा-रगड़ा

 ओ हमारे हुक्मरान

 मान लो हमर बतिया

 दे दो ना जीवनदान।

 नंगे ही आए धरा पर

 नंगे ही श्मशान/कब्रिस्तान

 जीने को सिर्फ़ चाहिए

 रोटी,कपड़ा और मकान।

 इस देश का नारा है

 जय जवान, जय किसान

 गूंजता रहेगा ये सदा

 जब तक है हिंदुस्तान।

 पंछी के कलरव से पहले

 कृषकों का होता विहान

 जब तक थमी रहेगी सांस

 होगा नहीं अवसान।

Chitralekha Yadav Madhepura अर्थात डाॅoचित्रलेखा ने फेसबुक के "विश्व हिंदी संस्थान" नामक ग्रुप में  पोस्ट किया। हम इसे यहां 7 दिसंबर 2020 की रात्रि 08:09 बजे पोस्ट किया साभार प्रकाशित कर रहे हैं। 

Sunday, November 22, 2020

मैरी और मायकिल////कहानी//कौशल बंधना पंजाबी

 Whatsapp: 21st  November 2020 at 02:31 PM

 मानवीय मन की संवेदना जगाती नई रचना 

मैरी और मायकिल यही नाम रख दिए पड़ोसी भाभी ने उस प्रेमी जोड़े या पति पत्नी कहो। दोनों हमेशां साथ साथ रहते ,,, शायद उनको कुत्ते की योनि में अपने रिश्ते की एहमियत का अहसास हो चुका था।

दोनों ज़्यादातर रोटी भाभी के यहां ही खाते मगर राखी पूरी गली की करते। घुसने नहीं देते किसी को। बहुत बार मैरी मां बनी पर उसके बच्चे हर बार चलती फिरती गाड़ियों की भेंट चढ़ गए।

इस बार भी दो तीन बच्चे गाड़ियों की भेंट चढ़ गए थे। एक  को गंभीर चोट आई तो तरस खाकर उसे भाभी उठाकर ले आईं। उसका इलाज भी करवाया गया एक बुज़ुर्ग माता से, जो इन्सानी हड्डियों की माहिर हैं। ईश्वर की कृपा से वो बच्चा थोड़ा चलने फिरने भी लगा। यह पुण्य का काम था मुझे भी अच्छा लगा उन बेज़ुबानों की मदद करना।

मैरी के बच्चों को एक दो बार मैंने नाली में फंसने पर बचाया था उस बेज़ुबान को ये भी याद रहा आजतक। मुझे देखकर पूंछ हिलाकर परिचय देती कि वह सब समझती है।

पर मां तो मां है बेशक इन्सान हो या जानवर औलाद का मोह अलग ही होता है। इस बार उसके बच्चे मरे तो वह आक्रामकता पर उतर आई। हर आते जाते को भौंकने काटने भागने लगी।

गली वालों को फिर भी कुछ नहीं बोली यह भी उसकी समझदारी थी। मगर भाभी भी डर गईं कहीं काट लिया किसी को तो उनका नाम ख़ामख़ां बजेगा कि उनके गेट पर जो डेरा डाले रहती थी।

अब बच्चों को बेशक भाभी के घर से भी खाने को मिलता था मगर मैरी और मायकिल अपने मां बाप होने का फ़र्ज़ फिर भी निभाते,,,, कहीं से कुछ खाने को मिलता तो बच्चों के खाने को ले आते।

मगर इस बार कुछ अलग सी घटना घटी जो किसी के भी समझ ना आई,,,, मुझे बुख़ार था मैं लेटी थी,,,,गली में से लवली दीदी की आवाज़ें आ रही थीं।

मैंने बेटी को बोला ये लवली दीदी तो ऐसे बोलती नहीं कभी,,,, क्योंकि काम में बिज़ी होती, ज़रूर कोई गंभीर बात है। बेटी बोली मां आप ठीक नहीं, लेटी रहो । मगर मैं हिम्मत करके उठी । बाहर जाकर दीदी से पूछा क्या हुआ दी ,,,आप क्यों बोल रही हैंं,,,वह अपने घर के आगे की जगह धुल रही थीं। यहां मीट, चावल और हल्दी सी बिखरी थी।कुत्तों को भगाने को एक सोटी सी थी हाथ में।

बोले देखो कौशल जी ये आज दिन में तीसरी बार हुआ।अब सभी वहां इकट्ठा हो चुके थे और यह सोचने को मजबूर थे की यह किसी की कोई शरारत तो नहीं।

अब आजकल कोई जादू टोना को तो नहीं मानता वह यह भी बोले मगर सोच सभी की यह थी कि तीन बार एक खाना और कुत्तों को एक ही जगह मिली । सभी अपनी अपनी सोच में थे और अपने अपने विचार भी रख रहे थे। कुत्तों से ऐतराज़ भी सभी जता ही रहे थे बातों बातों में।

मैं वहां खड़ी सोच रही थी क्या मैरी को कोई ऐसा ठिकाना तो नहीं मिल गया जो खाना बच्चों के लिए चुराकर लाती हो। फिर सोचा, अब इन बच्चों का क्या होगा अगर भाभी ने छोड़ दिया।क्या इस बार भी एक एक कर गाड़ियों के नीचे आ जाएंगे। खुले आंगन में बैठे रहते थे।

सुबह उठे तो देखा पड़ोसी भाई जी ने गेट के आगे थोड़ी रोक लगा दी, अब डर तो उनका भी सच्चा था।

बच्चे उदास थे भाभी के बुलाने भागने वाले चुप चाप बैठे थे।और मैरी और मायकिल भी उदास नज़रों से गेट को ताक रहे थे। फिर मैरी और मायकिल दो बच्चों को ले गए,,मगर वह लौट आए ।अब भी गली में दूर दूर बैठे हैं उदास। पता नहीं कितनी उम्र शेष है उनकी। गाड़ियों की भेंट चढेगें या बचेंगे,,,,जिस ईश्वर ने पैदा किया अब वही जाने क्या होगा आगे। (हिंदी स्क्रीन) 

भाखड़ा nngl।

पंजाब।©®

Thursday, October 15, 2020

औरत का अपमान दुर्गा का सम्मान ,कैसे सफल होगी पूजा ?

 इस तरह तो हर पूजा अधूरी  ही होगी 

     --समझा रही हैं सक्रिय लेखिका कौशल बंधना पंजाबी    

शुभ प्रभात

अलफ़ाज़-ए-अदब ग्रुप से साभार 
मां दुर्गा की पूजा कीजिए मगर औरत को मां ने अपना रूप प्रदान किया है,,उसकी भी इज्जत करना सीखिए, नहीं तो हर पूजा अधूरी है,,,बेशक पूर्व में या वर्तमान में यदि कोई भी पापकर्म किया औरत को गंदी नज़र से देखा। कोई कुकर्म किया या करने की धारणा रखी।या किसी से धोखा किया अपनी गंदी भावनाओं की शांति हेतु।

तो पहले तोबा करो उन कर्मों से जो कर लिए आजतक।तभी दुर्गा सफ़ल होगी उन मर्दों की जो दुर्गा पूजा तो दिल से करते हैं मगर पराई औरत को थाली का निवाला समझते हैं या फिर कुछ मनचले औरतों अथवा लड़कियों को अपनी हवस का शिकार बनाते हैं।

कुछ लोग रेप जैसी घटनाओं को अंजाम देकर भी मां दुर्गा के समक्ष पूजा करने का साहस करते हैं। कुछ दुनिया से छुपकर अच्छे आचरण तले छुपकर औरतों लड़कियों पर अपनी गंदी भावनाओं को प्रेम जाल में फंसाकर धोखा देकर भी मां दुर्गा के समक्ष पूजा करने का साहस करते हैं।

आए दिन रेप केस हो रहे यह कुंठित धारणाएं पता नहीं कैसे उत्पन्न होती होंगी और मर्द की रूह नहीं कांपती इनको धारणाओं को अंजाम देते।

मगर मां तो मां है सज़ा किसी रूप में अपने हिसाब से देती होगी ।प्रत्येक घर में मां बहन बेटी है तो मां दुर्गा की पूजा से पहले उसके प्रकोप का ध्यान भी रखिए यदि आपको सद्कर्म का फल मिलता है तो दुष्कर्म की सज़ा भी तय है।

समझिए सोचिए आपकी भावनाएं आपका आचरण किसी की रूह को ठेस ना पहुंचाए आपके कर्म आपके आगे इस तरह ना आए कि आपके परिवार में वही हो जो आपने पूर्व में किया। मां तो फल देगी ,,,,अच्छा या बुरा आपके कर्म तय करेंगे।

कहने का तात्पर्य बस इतना कि दुर्गा पूजा कीजिए अपनी सोच सुधारकर और गलतियों से तौबा कर ‌।औरत की इज्ज़त कीजिए मंदिर में बिठाकर ही नहीं मन में बिठाकर भी।हर औरत को थाली का निवाला मत समझिए।

जब गंदी भावनाएं आएं तो एक बार अवश्य सोचिए

कि आपके घर में मां,बहन बेटी भी है जो आप किसी गैर के लिए सोच कर रहे उनके साथ भी कल घट सकता है।

और आपको नवरात्री पूजन भी करना है किस मुंह से मां के समक्ष जाओगे क्या बोल पाओगे मां से जो दुनिया में तुमने अपना रूप दिया औरत उसी के साथ मैंने ग़लत किया।

धन्यवाद दुर्गा पूजा कीजिए परन्तु बाद में भूल मत जाना कि औरत मां का बनाया उसी का एक रूप है। पराई औरतों को भी मान सम्मान देना सीखिए।तभी आपकी दुर्गा पूजा सफ़ल होगी। --कौशल बंधना पंजाबी

(तेज़ी से उभतरि और तेज़ी से विकसित हो रहे "अलफ़ाज़-ए-अदब" ग्रुप से साभार) इस ग्रुप की एडमिन हैं सुश्री बेनु परवाज़, इरादीप त्रेहन, नीलू बग्गा लुधियानवी और अन्य। 

Tuesday, October 13, 2020

डा. सुरजीत पात्र की काव्य रचना बनी जसप्रीत फलक की प्रेरणा

 कविता, कथा कारवां के मंच ने करवाई किसानी पर विशेष चर्चा 


लुधियाना
: 12 अक्टूबर 2020: (हिंदी स्क्रीन ब्यूरो)::

शायर का मन बेहद संवेदनशील होता है। जब किसान घर बाहर छोड़ कर रेल पटरियों आ गये तो कलमकारों के दिल भी उठे।  उनकी खेती, उनकी मेहनत, कृषि से उनका इश्क-जब सब कुछ पूंजीपतियों के हवाले किये जाने साज़िशें कानून बनने लगीं तो शायर का अंतर्मन भी दहल उठा।  

डॉ. सुरजीत पातर जी की कृषि पर आधारित कविता 

"एह बात  निरी एनी ही नहीं  

ना ऐह मसला सिर्फ किसान दा ऐ" 

आयोजन का आधार बनी। इसी कविता को एक प्रभावशाली प्रेरणा कर जसप्रीत फलक बुद्धिजीवियों, शिक्षण के महारथियों और युवाओं को भी किसानों के दर्द और संघर्ष  की तरफ अग्रसर करने में  सफल रही। इश्क की बातें बहुत हो चुकी अब तो समय की नब्ज़ पर हाथ रख कर कुछ कहना आवश्यक हो गया था। इसी भावना से सभी उपस्थित सम्मानीयजनों का स्वागत किया गया। किसानों और किसानों को दरकिनार करके न तो खुशहाली सम्भव है और न ही सच्ची देशभक्ति। 

साहित्यिक और  सांस्कृतिक मंच कविता कथा कारवांँ की तरफ से आधुनिक कृषि में युवाओं की शमूलियत पर ऑनलाइन विचार चर्चा की गई जिसमें पंजाब के खेती माहिरों व प्रगतिशील किसानों द्वारा शिरकत की गई। कार्यक्रम का शुभारम्भ अध्यक्षा जसप्रीत कौर फ़लक ने सभी का स्वागत करते हुए किया। 

पंजाब के जॉइंट डायरेक्टर (कृषि) डॉ बलदेव सिंह बतौर मुख्य मेहमान शामिल हुए। उन्होंने बताया कि कृषि को किस प्रकार लाभदायक बनाया जा सकता है। कृषि क्षेत्र में हुनर विकास की बहुत संभावनाएं हैं उन्होंने कृषि के आधुनिक यंत्रों की जानकारी और उनके इस्तेमाल के बारे में बताया। साथ ही उन्होंने कहा कि किसानों को अपनी पराली को नहीं जलाना चाहिए पराली के धुएं से करोना बढ़ने की संभावना पैदा हो सकती है।  डॉ बलदेव सिंह ने उन नौजवान प्रगतिशील किसानों की मिसाल दी जिन्होंने कुछ हटकर किया और कृषि से अधिकतम मुनाफा कमाया है। पीएयू के साबका प्रोफेसर दलजीत सिंह ने कृषि के प्रगतिशील हुनर सीखने और उन्हें अमल में लाने की बात की और इसे व्यवसाय के तौर पर किस तरह अपनाना चाहिए इन सब बातों को बताया सीटी यूनिवर्सिटी के डीन एकेडमिक डॉ बक्शी ने कहा कि कृषि उद्योग के साथ जुड़े उद्योगों को बढ़ावा देने की आवश्यकता है कृषक जसवीर सिंह गुलाल ने सारे बताया कि परिवार में मिलजुल कर बागवानी का कार्य कर घर में भी खेती कर सकते हैं। पतरस गिल ने किसानों पर एक मार्मिक गीत 

"ख़री फसल ते चल दियां तवीयां, साडी हिक उत्ते फिर दिया छवियां, 

सब भुर गईयां सधरां जो नवीयां,  

चढ़े कर्जे ही उतार दे  मर गए, 

साडे पिंडेयां ते मारां दे निशान ने" 

और इसी तरह अन्य शायरों ने भी किसान के दर्द को बहुत ही कलात्मक अंदाज़ में प्रस्तुत किया।  बात बेशक पराली जलाने के मुद्दे को लेकर शुरू हुई लेकिन किसानों पर चढ़े क़र्ज़ और उसके शोषण पर भी भी काव्य चर्चा हुई:

प्रभलिखारी ने किसानों के प्रति एक संवेदनशील कविता पेश की:

ओह हक्कां दे लई लड़दा ए, 

ओह राखी फसल दी करदा हे,  

ओह अपने आप विच पूरा हे,  

ते लोकां नू पूरा कर दा ए" 

आयोजन को समाप्ति की तरफ ले जाते हुए मौजूदा संघर्ष पर भी गहन चर्चा हुई। पंजाब और देश के हालात पर भी विचार विमर्श हुआ। 

डॉ. जगतार धीमान,रजिस्ट्रार सी टी यूनिवर्सिटी ने कृषि की जानकारी देते हुए  मंच का संचालन बखूबी किया।


Saturday, October 10, 2020

नहीं रहे सोये हुए ज़हनों को झंझोड़ने वाले अज़ीम अमरोहवी साहिब

 कलम से ज़ुल्म  की कलाई मरोड़ना उन्हें बाखूबी आता था आता था  

कोरोना ने हमसे बहुत ख़ास ख़ास लोग छीन लिए। शायरी, सियासत, कला, फ़िल्में शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र बचा हो जिसमें से कोई न कोई घर सूना न हुआ हो। इसी दुखद कड़ी में एक और नाम है जनाब अज़ीम का। बहुत  करते थे। किसी का नाम चाहे इशारों से भी लें तो भी लिहाज़ नहीं करते थे। उनके इशारे भी अक्सर आसानी से समझ आ जाते कि किस किस चेहरे को बेनकाब कर रहे हैं। इस के बावजूद कभी भी तहज़ीब का साथ न छोड़ते। जैसे जैसे हालात नाज़ुक़ बनते गए वैसे वैसे अज़ीम साहिब की संवेदनशीलता भी  बारीकी से बढ़ती गई। न तो अंदाज़ बदला न ही तेवर बदले।  उनके जाने की दुखद जानकारी मिली है। 


आज के हालात में जब उनकी ज़रूरत पहले से कहीं ज़्यादा थी तब वह रुखसत हो गए। आज के इस नाज़ुक दौर में जब सच कहना बेहद दुश्वार होता जा रहा है और बहुत से लोग खामोश रहने में ही भलाई समझने लगे हैं इसके बावजूद भी सोशल मीडिया पर अक्सर पूरी तरह बेबाकी से सरगर्म रहने वाली मोहतरमा तस्वीर नक़वी साहिबा सेवह बताती हैं:अलविदा अज़ीम अमरोहवी साहेब,बहुत कमी कर गए आप मेरे शहर अमरोहा में,पचास किताबों के लेखक ,बहुत अच्छे मर्सिय लिखते थे ,पढ़ते थे ,एक हरदिल अज़ीज़ शख्सियत,दो महीने बड़ी बहादुरी से कोविड से जंग लड़ी मगर हार गए,आप अमरोहा की तारीख में दर्ज हो गए हमेशा के लिए!! 

Sunday, October 4, 2020

हाथरस मे घटी लड़की के बलात्कारोपरांत कत्ल की लेखकों ने भी निंदा की

 कविता कथा कारवां द्वारा गांधी जयंती पर हुआ आयोजन 


लुधियाना
: 4 अक्टूबर 2020: (हिंदी स्क्रीन ब्यूरो)::
 

देश की मौजूदा हालत पर जागरूक नागरिक  बन कर नज़र रखने वाले सभी शायर और लेखक भी बेहद चिंतित हैं। हाथरस में हुई जघन्य हत्या ने सभी को हिला कर रख दिया है। लेखन और शायरी को समर्पित गंभीर संगठन "कविता कथा कारवां" की तरफ से हुए आयोजन में स्पष्ट तैर पर यह आवाज़ बुलंद हुई कि आज वह भारत तो कहीं नज़र ही नहीं आ रहा जिसके सपने महात्मा गांधी जी ने देखे थे। सीमा पार सक्रिय दुश्मनों को ललकारने वाले शास्त्री जी अगर आज हमारे दरम्यान होते तो सबसे पहले सीमाओं के अंदर बैठे समाज दुश्मनों को सबक सिखाते। अफ़सोस के  निर्भया कांड के बाद भी ऐसी जघन्य  और अमानवीय वारदातें बार बार हुईं।  देश की बहु बेटियों के लिए कोई छोटा सा कोना भी सुरक्षित नहीं। कभी कठुआ,  कभी उन्नाव और अब हाथरस। बहुत दुखद और चिंतनीय स्थिति बन चुकी है।  गौरतलब है कि यह आयोजन भी सच बोलने की जुर्रत दिखाने वाली हिम्मतवर शायरा जसप्रीत कौर फलक की देखरेख में हुआ।  

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी तथा पूर्व  प्रधान मंत्री  श्री लाल बहादुर शास्त्री  जी  के जन्मदिन 2 अक्टूबर को मनाने के लिए संस्था कविता कथा कारवाँ के तहत,यू ट्यूब लाइव कार्यक्रम करवाया गया जिसमे विचार गोष्ठी, कवि सम्मेलन आदि  कार्यक्रम आयोजित किए गए। आज के लिए  महात्मा गाँधी जी  व श्री  लाल बहादुर शास्त्री जी के विचारों की सार्थकता  पर'  कविता पाठ एवं विचार गोष्ठी का आयोजन किया गया। सर्वप्रथम सुश्री शैली वधवा  ने 'रघुपति  राघव राजा राम' से कार्यक्रम का प्रारंभ किया। मंच की अध्यक्षा जसप्रीत कौर फ़लक ने सभी प्रतिष्ठित जनों का मंच पर स्वागत किया। अनेक सम्माननीय  कवियों  ने कविता के माध्यम से अपने विचार पेश किए । उन्होंने कहा कि बढ़े दु:ख को बात है कि आज भारत मे ऐसा कुछ  फिर  से हो रहा है जिसकी गांधी जी  भर्त्सना किया करते थे। डा अनु मेहता, रिशमजोत संघा विरक, आकाश ठाकुर, ज्योति बजाज, प्रभदयाल, इरादीप तरेहण, गुरमीत कौर, डा गोकुल  क्षत्रीय, डा अनु  शर्मा  कौल,   हरदीप विरदी, डा सुमन शर्मा और  शैली वाधवा ने अपनी भावनाओं को कविता के माध्यम से वयक्त किया।  भावनाऐं गांधी जी  व श्री लाल बहादुर शास्त्री जी को समर्पित रहीं।  हाल ही मे हाथरस  मे घटी लड़की के बलात्कारोपरांत कत्ल  की घिनौनी घटना  की निंदा की गई क्यूंकि इस घटना ने सभी को उद्धेलित कर रखा था। 

 डा जगतार धीमान ने अपने भाषण में  गाँधी जी  तथा श्री लाल बहादुर शास्त्री जी के जीवन  सिद्धांतों का ज़िक्र करते हुए  बुरा न सुनने, बोलने व देखने के साथ साथ  अहिंसा, शांति, सच्चाई, सहिष्णुता, आदि  की आज  अधिक आवश्यकता को दरसाया। उन्होंनें गांधी  व शास्त्री जी श्रद्धांजलि देती हुई अपनी कविता भी पढ़ी। अध्यक्षा  जसपरीत  कौर फलक ने कहा कि आज विश्व स्तर पर गांधी जी की  के दर्शन व जीवन  शैली की बढती हुई पसंद  का जिक्र करते हुए कहा किआज युवा वर्ग को देशभक्ति के साथ साथ अहिंसा को अपनाने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए। इसी के साथ मैडम फ़लक द्वारा सभी अतिथियों को धन्यवाद दिया गया और  शुभकामनाएं देकर  अंत में राष्ट्रगान के साथ सभा का समापन किया गया।


Friday, October 2, 2020

अहिंसक पथ के प्रेरक: महात्‍मा गांधी

 11-अक्टूबर-2017 18:53 IST

   विशेष लेख                                                                                                        ए.अन्‍नामलाई   


सत्य और अहिंसा के पुजारी एवं देश में आजादी की अलख जगाने वाले महात्मा गांधी ऐसे दूरदर्शी महापुरुष थे जो पहले ही यह भांप लेते थे कि कौन-कौन सी समस्‍याएं आगे चलकर विकराल रूप धारण करने वाली हैं। इसकी बानगी आपके सामने है। 

  *ए.अन्‍नामलाई   
महात्मा गांधी ने जिन समस्‍याओं का सटीक समाधान खोजने पर अपना ध्‍यान केंद्रित किया था वे आज के हमारे युग में भारी बोझ बन गई हैं। विश्‍व स्‍तर पर फैली गरीबी, अमीर एवं गरीब के बीच बढ़ती खाई, आतंकवाद, जातीय युद्ध, उत्पीड़न, भ्रष्टाचार, पूर्व और पश्चिम के बीच बढ़ता फासला, उत्तर और दक्षिण के बीच बढ़ती विषमता, धार्मिक असहिष्णुता तथा हिंसा जैसी समस्‍याओं पर अपनी नजरें दौड़ाने पर आप भी इस तथ्‍य से सहमत हुए बिना नहीं रहेंगे। यही नहीं, महात्मा गांधी ने स्वतंत्रता एवं समानता, मित्रता एवं गरिमा, व्यक्तिगत कल्याण और सामाजिक प्रगति जैसे जिन महान आदर्शों के लिए संघर्ष किया था, उनके लिए हम आज भी लड़ रहे हैं।

महात्मा गांधी ने दुनिया के इतिहास में पहली बार  जंग लड़े बिना ही एक विशाल साम्राज्य के चंगुल से छुड़ाकर एक महान देश को आजादी दिला दी। उस समय तक अमेरिका और एशिया के जितने भी उपनिवेशों ने यूरोप की औपनिवेशिक ताकतों से अपनी आजादी हासिल की थी उसके लिए उन्‍हें भयावह एवं विनाशकारी जंग लड़नी पड़ी थी। वहीं, दूसरी ओर महात्मा गांधी ने शांतिपूर्ण तरीके से यानी अहिंसा के मार्ग पर चलकर देश को बहुप्रतीक्षित आजादी दिला दी। यह इतिहास में ‘मील का पत्थर’ था। दूसरे शब्‍दों में, यह एक युगांतकारी घटना थी। यह निश्चित रूप से मानव जाति के इतिहास में महात्मा गांधी का अविस्मरणीय योगदान है - युद्ध के बिना आजादी।

दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह

यह अहिंसा की पहली जीत थी–सविनय अवज्ञा की पहली जीत। इसने पूरी दुनिया के समक्ष पहली बार यह साबित कर दिया कि अच्छे परिणाम प्राप्त करने के लिए हिंसा का रास्‍ता अख्तियार करना एक अप्रचलित या पुरातन तरीका है।

जब भी किसी बिगड़ते हालात से पूरे विश्वास के साथ, साहस के साथ, दृढ़ता के साथ एवं धीरज के साथ निपटा जाता है तो अहिंसा की तुलना में कोई भी हथियार अधिक कारगर साबित नहीं होता है। यह धरसना नमक वर्क्स और भारत की आजादी के लिए छेड़े गए आंदोलन का सबक था। यह महात्मा गांधी का महान ऐतिहासिक सबक था, लेकिन दुर्भाग्यवश दुनिया को अब भी यह सबक सीखना बाकी है।

महात्मा गांधी वर्ष 1906 से लेकर 30 जनवरी 1948 को अपनी मृत्यु तक अपने अहिंसक आंदोलन एवं संघर्ष के साथ अत्‍यंत सक्रिय रहे थे। इस अवधि के दौरान उन्‍होंने भारतीय एम्बुलेंस कोर के एक स्वयंसेवक के रूप में दक्षिण अफ्रीका में हुए बोअर युद्ध और ज़ुलु विद्रोह में हिस्सा लिया। महात्मा गांधी दो विश्व युद्धों के साक्षी भी बने। 

उनका अहिंसक संघर्ष काफी सक्रिय रहा था और जब भी जरूरत पड़ी, तो उन्होंने अफ्रीका में युद्ध की तरह अपनी अहिंसा को कसौटी पर रखा। जब भारत में सांप्रदायिक हिंसा की आग फैल गई तो वह भारत के पूर्वी भाग चले गए, ताकि वहां आमने-सामने रहकर हिंसक हालात का जायजा लिया जा सके।  

नोआखली में शांति मिशन

 ‘शिकागो डेली’ के दक्षिण एशिया संवाददाता श्री फिलिप्स टैलबॉट महात्मा गांधी के ऐतिहासिक मिशन के प्रत्यक्ष साक्षी थे। वह पश्चिम बंगाल के नोआखली गए और वहां फैली सांप्रदायिक हिंसा के दौरान महात्मा गांधी के साथ समय बिताया।  उन्होंने कहा, ‘छोटे कद का एक वृद्ध व्‍यक्ति, जिसने निजी संपत्ति त्‍याग दी है, एक महान मानव आदर्श की तलाश में ठंडी धरती पर नंगे पैर घूम रहा है।’

तात्कालिक अभिप्राय            

अप्रैल 1945 में द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति पर ग्रेट ब्रिटेन में नए सिरे से चुनाव हुए और प्रधानमंत्री के रूप में लेबर पार्टी के क्लीमेंट एटली की अगुवाई में सरकार बनी, जिन्‍होंने भारत में विचार-विमर्श करने और स्वशासन का मार्ग प्रशस्‍त करने के लिए कैबिनेट मंत्रियों का एक प्रतिनिधिमंडल भारत भेजा। उस समय तक एक समुचित समझौता संभव नजर आ रहा था और एक अंतरिम सरकार का गठन किया जाना था जिसके लिए कांग्रेस ने अपनी सहमति व्यक्त कर दी थी। हालांकि, जिन्ना एवं मुस्लिम लीग ने अलग राष्ट्र की वकालत की और 16 अगस्त 1946 को ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ के रूप में मनाया, जिस वजह से कलकत्ता और पूर्वी बंगाल में अप्रत्‍याशित रूप से दंगे भड़क उठे।

सच्‍चाई को परखना

प्रतिक्रियास्‍वरूप, इस तरह के दंगे बंगाल के नोआखली और टिपराह जिलों में भड़क उठे। तब महात्मा गांधी ने एक संवाददाता के इस सुझाव को स्‍मरण किया एवं उस पर गंभीरतापूर्वक मनन किया कि उन्‍हें खुद किसी दंगा स्‍थल पर जाना चाहिए और व्यक्तिगत उदाहरण के जरिए अहिंसक ढंग से दंगों को शांत करने का रास्ता दिखाना चाहिए। महात्मा गांधी के अनुसार, ‘अहिंसा की उनकी तकनीक कसौटी पर कसी जा रही है। यह देखना अभी बाकी है कि वर्तमान संकट में यह कितनी कारगर साबित होती है। यदि इसमें कोई सच्‍चाई नहीं है, तो बेहतर यही होगा कि मुझे खुद ही अपनी विफलता घोषित कर देनी चाहिए।’ ठीक यही विचार इस अवधि के दौरान उनके प्रार्थना भाषणों में बार-बार व्यक्त किया गया था।

बंगाल में सांप्रदायिक अशांति के बाद महात्मा गांधी का संदेश यह था कि ‘सांत्वना नहीं, बल्कि साहस ही हमें बचाएगा।’ तदनुसार, महात्मा गांधी 7 नवंबर 1946 को नोआखली पहुंच गए और 2 मार्च 1947 को बिहार रवाना हो गए। ध्‍यान देने योग्‍य बात यह है कि 77 साल की उम्र में भी महात्मा गांधी अहिंसा और हिन्दू-मुस्लिम एकता में अपने विश्वास की सच्‍चाई को परखने के लिए नंगे पांव पूर्वी बंगाल के एक दूरदराज गांव जाने से पीछे नहीं हटे। महात्मा गांधी खुद दिसंबर 1946 के आखिर तक श्रीरामपुर नामक एक छोटे से गांव में डटे रहे और अपने अनुयायियों को अन्य दंगा प्रभावित गांवों में यह निर्देश देकर भेज दिया कि वे उन गांवों में रहने वाले हिंदू अल्पसंख्यक की सुरक्षा और हिफाजत के लिए कोई भी जोखिम मोल लेने से पीछे न हटें। जनवरी में उन्‍होंने दो चरणों में नोआखली स्थित गांवों का व्यापक दौरा शुरू कर दिया। अपने बारे में उन्होंने कहा, ‘मैं पूरे वर्ष या उससे भी अधिक समय तक यहां रह सकता हूं। यदि आवश्यक हो, तो मैं यहां मर जाऊंगा। लेकिन मैं मौन रहकर विफलता को स्वीकार नहीं करूंगा।’

उनकी दिनचर्या

गांवों के अपने दौरे के दौरान महात्मा गांधी ने नियमित रूप से तड़के 4 बजे उठने की आदत डाल दी। सुबह की प्रार्थना पूरी करने के बाद वह एक गिलास ‘शहद युक्‍त पानी’ पीते थे और सुबह होने तक तकरीबन दो घंटे अपने पत्राचार में लगे रहते थे। सुबह 7.30 बजे वह एक कर्मचारी और अपनी पोती के कंधों पर अपने हाथ रखकर सैर पर निकल जाते थे। हाथ से बुनी शॉल में लिपटे यह वृद्ध व्‍यक्ति काफी तेज कदमों से आगे-आगे चला करते थे। वह वृद्ध भारतीय तीर्थयात्रियों की तरह नंगे पांव चला करते थे। उनके आसपास कुछ अभिन्‍न व्‍यक्ति रहते थे जैसे कि प्रोफेसर निर्मल कुमार बोस, जो उनके बंगाली दुभाषिया थे और परशुराम, जो एक प्रकार के निजी परिचारक-कम-स्टेनोग्राफर थे। इसके अलावा, उनके आसपास एक-दो युवक, कुछ समाचार संवाददाता और मुस्लिम लीग के प्रीमियर एच. एस. सुहरावर्थी द्वारा मुहैया कराई गई पुलिसकर्मियों की एक टीम  (महात्‍मा गांधी द्वारा बार-बार विरोध जताने के बावजूद) रहती थी। कई ग्रामीण भी उनके साथ उस गांव तक जाया करते थे जहां वह एक दिन ठहरते थे। शाम में प्रार्थना सभा आयोजित की जाती थी। इसके बाद एक परिचर्चा आयोजित की जाती थी जिस दौरान वह अपने जेहन में उठने वाले हर विचार को लोगों के सामने रखते थे जैसे कि गांव में साफ-सफाई, महिलाओं में पर्दा प्रथा, हिंदू-मुस्लिम एकता, इत्‍यादि। रात्रि लगभग 9 बजे वह मालिश के बाद स्नान करते थे। इसके बाद वह एक गिलास गर्म दूध के साथ जमीन के नीचे उपजने वाली एवं कटी हुई सब्जियों के उबले पेस्ट के रूप में हल्‍का भोजन लेते थे।

उनके मिशन की कवरेज

नोआखली में अपने प्रवास के लगभग चार महीनों में महात्‍मा गांधी ने 116 मील की दूरी तय की और 47 गांवों का दौरा किया। नवंबर-दिसंबर के दौरान एक महीने से भी ज्यादा समय तक वह श्रीरामपुर में एक ऐसे घर में रहे जो आधा जला हुआ था। उन्होंने 4 फरवरी और 25 फरवरी, 1947 को समाप्त दो समयावधि में अन्य गांवों का दौरा किया। वह 2 मार्च 1947 को हैमचर (नोआखली जिले में) से कलकत्ता होते हुए बिहार के लिए रवाना हो गए।

एक और ‘करो या मरो’ मिशन

महात्मा गांधी ने 5 दिसंबर, 1946 को नारनदास गांधी को लिखे एक पत्र में अपने मिशन के बारे में निम्नलिखित शब्दों में अभिव्यक्त किया:-

‘वर्तमान मिशन मेरे जीवन में शुरू किए गए सभी मिशनों में सबसे जटिल है. . . मुझे याद नहीं है कि मैंने अपने जीवन में इस तरह के घनघोर अंधेरे का अनुभव इससे पहले कभी किया भी था या नहीं। रात काफी लंबी प्रतीत हो रही है। मेरे लिए एकमात्र सांत्वना की बात यह है कि मैंने हार नहीं मानी है या निराशा को अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया है। यह पूरा किया जाएगा। मेरा मतलब यहां ‘करो या मरो’ से है। ‘करो’ से मतलब हिंदुओं और मुसलमानों के बीच सौहार्द बहाल करने से है और ‘मरो’ से मतलब प्रयास करते-करते मिट जाने से है। इसे हासिल करना मुश्किल है। लेकिन सब कुछ ईश्वर की इच्छा के अनुरूप ही होगा।’ (सीडब्ल्यूएमजी, 86: 197-98)  

वह वास्तव में एक कठिन मार्ग पर नंगे पांव चलने वाले ‘अकेले तीर्थयात्री’ थे और वह लोगों की ता‍कत एवं अहिंसा की ताकत का नायाब प्रदर्शन करने में काफी हद तक सफल रहे।

मिशन गांधी:

जब पूरी दुनिया ने एक सामाजिक व्यवस्था के रूप में अनुबंधित श्रम को स्वीकार कर लिया था, तब महात्‍मा गांधी ने इसका विरोध किया। जब पूरी दुनिया ने यह स्वीकार कर लिया कि ‘ताकतवर की बात ही सही माननी पड़ती है’, तब महात्‍मा गांधी ने यह साबित कर दिया कि ‘जो सही बात होती है उसे ताकतवर को भी माननी पड़ती है।’ जब पूरी दुनिया ने मार-काट वाली लड़ाइयां लड़ीं, तब उन्होंने एक अहिंसक लड़ाई लड़ी। उन्होंने हिंसा के स्‍थान पर अहिंसा को अपना कर इतिहास की दिशा ही बदल दी। अब तक हिंसा ही राजनीतिक विवादों को सुलझाने का अंतिम हथियार थी, लेकिन अहिंसक प्रतिरोध अर्थात सत्याग्रह के जरिए उनके योगदान के बाद अहिंसा ने पूरी दुनिया में लोगों के हालिया आंदोलन में सबसे अहम स्थान हासिल कर लिया है।  (PIB)

फोटोः हिंदी स्क्रीन इनपुट 

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लेखक ए.अन्‍नामलाई, राष्ट्रीय गांधी संग्रहालय, राजघाट, नई दिल्ली में निदेशक के पद पर कार्यरत है।  

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Thursday, October 1, 2020

स्‍वच्‍छता की कमी एक अदृश्‍य हत्‍यारे की तरह है

 03-अक्टूबर-2017 09:39 IST

गांधी जी के लिए अहिंसा स्‍वच्‍छता के समान थी


गांधी जयंती-02 अक्टूबर को होती है। 
इस अवसर पर आयोजित “स्वच्छता ही सेवा” पखवाड़ा के संबंध में  *सुधीरेन्द्र शर्मा का विशेष लेख-

*सुधीरेन्द्र शर्मा

गंदगी और बीमारी के खिलाफ भारत के निर्णायक युद्ध को ‘स्‍वच्‍छता ही सेवा’ अभियान से ज़ोरदार बढ़ावा मिला है जो स्‍वच्‍छता की साझा जिम्‍मेदारी के बारे में हमारा ध्‍यान आकृष्‍ट करता है। देश में पहले से चलाए जा रहे ‘स्‍वच्‍छ भारत मिशन’ को और असरदार बनाने की इस मुहिम में जनता का आह्वान किया गया है कि वे साफ-सफाई को उन ‘दूसरे’ लोगों की जिम्‍मेदारी न समझें जो ‘हमारे’ इस दायित्‍व को ऐतिहासिक रूप से खुद निभाते आए हैं।   

महात्‍मा गांधी के घुमंतु जीवन में ऐसे अनगिनत अवसर आए जिनसे स्‍वच्‍छता और सेवा का संबंध स्‍पष्‍ट रूप से सामने आ जाता है और तब गांधीजी अपने आप को  ‘हरएक को खुद का सफाईकर्मी होना चाहिए’ के आदर्श के जीते-जागते उदाहरण के रूप में पेश करते हैं। इस बात के बारे में आश्‍वस्‍त हो जाने पर कि वह ‘किसी को भी गंदे पांव अपने मस्तिष्‍क से होकर गुजरने नहीं देंगे’ गांधी जी ने झाड़ू को जीवन भर मजबूती से अपने हाथों में थामे रखा और ‘सफाईकर्मी की तरह’ अपनी सेवाएं उपलब्‍ध कराने का कोई अवसर नहीं गंवाया।  

 अफ्रीका में फीनिक्‍स से भारत में सेवाग्राम तक गांधीजी के आश्रम इस बात का जीता-जागता उदाहरण रहा कि स्‍वच्‍छता के लिए सेवा करने का क्‍या मतलब है। साफ-सफाई उनके लिए दिखावे के लिए की जाने वाली कोई गतिविधि न होकर सेवा का एक महान कार्य था जिसमें सभी आश्रमवासी रोजाना हिस्‍सा लेते थे। इससे यह स्‍पष्‍ट हो जाता है कि राष्‍ट्रपिता के लिए स्‍वच्‍छता का कार्य एक ऐसा सामाजिक हथियार था जिसका उपयोग वह साफ-सफाई में बाधा डालने वाली जाति और वर्ग की बाधाओं को दूर करने में करते थे और यह आज तक प्रासंगिक बना हुआ है।

लेकिन यह बात हैरान करने वाली है कि महात्‍मा गांधी ने आजादी हासिल करने के अपने अहिंसक आंदोलन की समूची अवधि के दौरान किस तरह स्‍वच्‍छता के अपने संदेश को जीवंत बनाए रखा। नोआखाली नरसंहार के बाद अहिंसा के अपने विचार और व्‍यवहार की अग्निपरीक्षा की घड़ी में गांधीजी ने अपने इस संदेश को जन-जन तक पहुंचाने का कोई अवसर नहीं गंवाया कि स्‍वच्‍छता और अहिंसा एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।   

एक दिन नोआखाली के गड़बड़ी वाले इलाकों में अपने शांति अभियान के दौरान उन्‍होंने पाया कि कच्‍ची सड़क पर कूड़ा और गंदगी इसलिए फैला दी गयी है ताकि वह हिंसाग्रस्‍त इलाके के लोगों तक शांति का संदेश न पहुंचा पाएं। गांधी जी इससे जरा भी विचलित नहीं हुए और उन्‍होंने इसे उस कार्य करने का एक सुनहरा अवसर माना जो सिर्फ वही कर सकते थे। आस-पास की झाडि़यों की टहनियों से झाड़ू बनाकर शांति और अहिंसा के इस दूत ने अपने विरोधियों की गली की सफाई की और हिंसा को ओर भड़कने से रोक दिया।   

उनके लिए ‘स्‍वस्‍थ्‍य तन, स्‍वस्‍थ मन’ की कहावत में कोई मूर्त अभिव्‍यक्ति अंतर्निहित नहीं थी, बल्कि इसमें एक गहरा दार्शनिक संदेश छिपा हुआ था। क्‍या कोई ऐसा व्‍यक्ति अपने मन में अहिंसक विचारों को प्रश्रय दे सकता है जिसके कृत्‍य दूसरे प्राणियों या प्रकृति के प्रति हिंसक होंॽ वह स्‍वच्‍छता को स्‍वतंत्रता के अपने राजनीतिक आंदोलन का अभिन्‍न अंग मानते थे और नि:संदेह वह स्‍वच्‍छता की कमी को हिंसक कृत्‍य के समान मानते थे। सचमुच, स्‍वच्‍छता की कमी से देश में आज भी लाखों बच्‍चे मौत की नींद सो जाते हैं और यह भी एक तरह की हिंसा ही है।     

      कोई आश्‍चर्य नहीं कि स्‍वच्‍छता की कमी एक अदृश्‍य हत्‍यारे की तरह है। गांधी जी को गंदगी में हिंसा का सबसे घृणित रूप छिपा हुआ दिखता था। इसलिए वह सामाजिक-राजनीतिक, दोनों ही तरह की स्‍वतंत्रता के मार्ग में स्‍वच्‍छता और अहिंसा सहयात्री की तरह मानते थे। गांधीजी पश्चिम में स्‍वच्‍छता के सुचिंतित नियमों को देख चुके थे इसलिए वह इन्‍हें अपने और अपने करोड़ों अनुयायियों के जीवन में अपनाने का लोभ संवरण नहीं कर पाए।हालांकि इसके लिए उन्‍होंने जो कार्य शुरू किया उसमें से ज्‍यादातर अब भी अधूरे ही हैं।    

       ‘‘वर्षों पहले मैंने जाना कि शौचालय भी उतना ही साफ-सुथरा होना चाहिए जितना कि ड्राइंग रूम’’।अपनी जानकारी को ऊंचे स्‍तर पर ले जाते हुए गांधीजी ने अपने शौचालय को (वर्धा में सेवाग्राम के अपने आश्रम में) शब्‍दश: पूजास्‍थल की तरह बनाया क्‍योंकि उनके लिए स्‍वच्‍छता दिव्‍यता के समान थी। शौचालय को इतना महत्‍व देकर ही जनता को इसके महत्व के बारे में समझाया जा सकता है। इस पर अमल के लिए हमें गंदगी में रहने के बारे में अपनी उस धारणा में बदलाव लाना होगा जिसके तहत हम स्‍वच्‍छता को आम बात न मानकर एक अपवाद अधिक मानते हैं।  

       देश को 2 अक्‍तूबर 2019 तक खुले में शौच से मुक्ति दिलाने का महत्‍वाकांक्षी लक्ष्‍य उसी दिशा में उठाया गया पहला कदम है। देश भर में 5 करोड़ से ज्‍यादा घरों में से हर एक में शौचालय का निर्माण करने का वादा एक चुनौती भरा लक्ष्‍य है, लेकिन ‘शौचालय आंदोलन’ को ऐसे ‘सामाजिक आंदोलन’ में बदलना, जिसमें शौचालयों का उपयोग आम बात बन जाए, तभी संभव है जब हम गांधी जी के जीवन से सबक लें। अन्‍य बातों के अलावा हमें शौचालयों की सफाई करने और सीवेज के गड्ढों को खाली करने के बारे में गांव के लोगों की अनिच्‍छा जैसी सामाजिक-सांस्‍कृतिक वर्जना को दूर करना होगा।      

कोई भी इस समस्‍या की गंभीरता का अनुमान उस तरह से नहीं लगा सकता जिस तरह गांधीजी ने खुद इसका आकलन किया था। एक बार जब कस्‍तूरबा गांधी ने शौचालय साफ करने और गंदगी का डब्‍बा उठाने में घृणा महसूस की थी तो गांधीजी ने उन्‍हें झिड़की दी थी कि अगर वह सफाई कर्मी का कार्य नहीं करना चाहतीं तो उन्‍हें घर छोड़कर चला जाना चाहिए। कई तरह से स्‍वच्‍छता उनके लिए अहिंसा की तरह, या शायद इससे भी ऊंची चीज थी।    

गांधी जी के जीवन के इस छोटे-से मगर महत्‍वपूर्ण प्रकरण में एक बहुमूल्‍य संदेश निहित है।अपने बाकी जीवन में इस पर अमल करते हुए कस्‍तूरबा ने अनजाने में ही ‘स्‍वच्‍छता ही व्‍यवहार है’ का परिचय दे दिया। अगले साल स्‍वच्‍छता अभियान के लिए यह प्रेरक संदेश हो सकता है। आखिर यही तो वह व्‍यवहार-परिवर्तन है जिसके संदेश को स्‍वच्‍छ भारत मिशन के जरिए करोड़ों लोगों के मन में बैठाने का प्रयास किया जा रहा है। (PIB)

फोटोः  हिंदी स्क्रीन इनपुट 

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*डॉ. सुधीरेन्द्र शर्मा स्‍वतंत्र लेखक, अनुसंधानकर्ता और शिक्षाविद हैं। इस लेख में व्‍यक्‍त विचार लेखक के व्यक्तिगत हैं।

 

Wednesday, September 30, 2020

कविता, कथा कारवाँ ने लॉकडाउन में भी बनाया नया रेकार्ड

 जसप्रीत कौर फलक के मार्गदर्शन में जारी रहा चुनौती भरा सफर  


लुधियाना
: 30 सितंबर 2020: (रेक्टर कथूरिया//हिंदी स्क्रीन)::

कोरोना युग का लॉक डाउन तो अपनी भयावह स्मृतियों के कारण याद रहेगा ही। ज़िंदगी का अचानक ठिठक जाना और मध्यवर्गीय  छोटे छोटे कारोबारों का दम तोड़ जाना काले दौर के तौर पर हमेशां याद रखे जायेंगे लेकिन इस सब के बावजूद जो साकारत्मक बात याद रखी जाएगी वह है ऐसे भयानक दौर में भी शायर वर्ग की हिम्मत। ज़िंदगी की रफ्तार के सामने लॉक डाउन की दीवार खड़ी होने के बावजूद शायर चलते ही रहे चलते ही रहे। इनके काफिले नहीं रुके। शायरों  ने इन दीवारों में से भी दरवाज़े निकाले। अंधेरों को भी उजालों में बदला।  रुकावटों  को भी अपनी सीढ़ी बनाया और लगातार चलते रहे। मिलने जुलने और सभा सम्मेलनों पर बंदिश लगी तो शायर वर्ग ने ज़ूम और गूगल मीट का सहारा लिया लेकिन रूबरू होना नहीं छोड़ा। शायर गाते रहे, "चले चलो कि वो मंज़िल अभी नहींआई।" अंसभव राहों पर चलते हुए ये शायर लोग जोश में भी रहे और होश में भी रहे। जानीमानी शायरा डा. कविता किरण के शब्दों में कहें तो इस काले स्याह दौर में भी लगातार चलने वाले ये शायर लोग मानों कह रहे थे:   

नामुमकिन को मुमकिन करने निकले हैं,

हम छलनी में पानी भरने निकले हैं।

                                आँसू पोंछ न पाए अपनी आँखों के

                               और जगत की पीड़ा हरने निकले हैं।

पंजाब, हरियाणा और अन्य उत्तर भारतीय राज्यों में सरगर्म रहे काफिलों में से एक का ज़िक्र हम यहां भी कर रहे हैं। "कविता, कथा कारवाँ" हमेशां की तरह जसप्रीत कौर फलक  के मार्गदर्शन में लॉक डाउन के दौरान भी सरगर्म रहा। न तो कोरोना रोक सका न ही लॉक डाउन। 

जानीमानी शायरा फलक अपनी नई सरगर्मी के संबंध में कहती है:आजकल की परिस्थितियों को देखते हुए संस्था कविता कथा कारवाँ के तहत ,यू ट्यूब लाइव कार्यक्रम ,राष्ट्रीय हिंदी दिवस के उपलक्ष्य में 14 से लेकर 28 सितम्बर करवाए गए। जिसमे विचार गोष्ठी, कवि सम्मेलन आदि  कार्यक्रम आयोजित किए गए।अतिम चरण में  भविष्य में हिन्दी की सम्भावनाओं पर विचार गोष्ठी का आयोजन किया गया। सर्व प्रथम श्रीमती रश्मि अस्थाना  ने सरस्वती वंदना से कार्यक्रम का प्रारंभ किया। मंच की अध्यक्षा जसप्रीत कौर फ़लक ने सभी प्रतिष्ठित जनों का मंच पर स्वागत किया। अनेक सम्माननीय शिक्षाविदों ने हिंदी की समृद्धता पर अपने विचार पेश किए । उन्होंने कहा कि भले ही आज भारत की सभी भाषाओं ने अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया है लेकिन इसके बावजूद हिंदी भाषा ही सर्वेसर्वा  है। मुख्य अतिथि के रुप में  डा. विनोद कुमार तनेजा ने हिंदी भाषा के महत्व  के विषय में  बताया कि आज हिंदी विश्व स्तर पर हिंदी की मान्यता अति आवश्यक  होती जा रही है और विदेशों का हिंदी के प्रति रुझान बहुत तेज़ी से बढ़ता जा रहा है। संचार एवं संपर्क भाषा के रूप में हिंदी भारत की आत्मा है। इस प्रकार हिन्दी पखवाड़े के अंतिम चरण पर "कविता कथा कारवाँ" मंच को गौरवान्वित करने के लिए उपस्थित मुख्य अतिथि डॉ विनोद कुमार तनेजा, वरिष्ट अतिथि डॉ धर्मपाल साहिल और किरण साहनी  के साथ-साथ  विद्वतजन, बुद्धिजीवी, आचार्य, वरिष्ठ साहित्यकार डॉ ब्रह्मदेवडॉ राजेन्द्र जैन, डॉ विनोद कुमार, डॉ कुलदीप सिंह इत्यादि सभी ने सारगर्भित परिचर्चा की। डॉ राजेन्द्र साहिल ने अत्यंत कुशल मंच संचालन किया और धन्यवादी शब्द माननीय रश्मि अस्थाना जी ने कहे। इसके साथ ही एक सफल और सार्थक परिचर्चा सम्पन्न हुई। कार्यक्रम के प्रारंभ से लेकर अंत तक मंच का संचालन डॉ राजेन्द्र साहिल जी ने बहुत ही खूबसूरत अंदाज से  किया। मंच कविता कथा कारवांँ कीअध्यक्षा प्रो जसप्रीत कौर फ़लक द्वारा सभी अतिथियों को धन्यवाद दिया गया और अंतरराष्ट्रीय हिंदी दिवस की शुभकामनाएं देकर अंत में राष्ट्रगान के साथ सभा का समापन किया गया।

एक फिर शायर वर्ग ने साबित किया:

हम रुकते नहीं  

हम थकते नहीं!

चाहे आये कोरोना 

या 

हो  लॉक डाउन!                                    प्रस्तुति--रेक्टर कथूरिया 


Tuesday, September 29, 2020

हिन्दी फिल्मों में राष्ट्रवाद का विकास

 24-अगस्त-2017 10:05 IST

 लेकिन आज के बॉलीवुड में वह बात कहां! 


हिंदी फिल्मों ने राष्ट्रवाद को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।  इस मकसद को सामने रख कर बनी फिल्मों के गीत-संगीत और डायलॉग्स में एक जादू सा असर होता। गीत तो देखते ही देखते सबके  होंठो पर आ जाते। इस दौर की याद दिला रहे हैं-
*प्रियदर्शी दत्त

*प्रियदर्शी दत्त
पिछले 70 वर्षों में हिन्दी की अनेक यादगार फिल्मों ने लोगों में देशभक्ति भाव, शौर्य और देश के लिए बलिदान का भाव भरा है। फिल्मों के विषय स्वतंत्रता संघर्ष, आक्रमण और युद्ध, खेल, प्राचीन और मध्यकालीन इतिहास, विद्रोह आदि रहे हैं। लेकिन सबके मूल में भारतीय होना और देश के प्रति कर्तव्य का भाव रहा है। लेकिन आज के बॉलीवुड में कम संख्या में देशभक्ति की फिल्मे बन रही है। पुराने जमाने के बम्बई फिल्म उद्योग में देशभक्ति फिल्मों की संख्या अधिक हुआ करती थी।

भारत में फिल्म उद्योग स्वतंत्रता आंदोलन के समय उभरा। 19वीं शताब्दी के नाटक की तरह इस बात की प्रबल संभावना थी कि फिल्मों के माध्यम से देशभक्ति की भाव का संचार किया जा सकता है। 1876 में लॉर्ड नॉर्थब्रुक प्रशासन ने मंच से राजद्रोह दृश्य खत्म करने के लिए नाटक प्रदर्शन अधिनियम लागू किया था। इसी तरह ब्रिटिश शासन ने सेंसर कार्यालय और पुलिस के माध्यम से फिल्मों पर कड़ी नजर रखी। वर्ष 1943 में रामचन्द्र नारायण जी द्विवेदी  उर्फ कवि प्रदीप के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट निकला। यह वारंट बॉम्बे टॉकिज की फिल्म किस्मत में भारत छोड़ो आंदोलन के समर्थन में अप्रत्यक्ष रूप में शासन के विरुद्ध लिखे गाने को लेकर जारी किया गया था। यह गाना था आज हिमालय की चोटी से फिर हमने ललकारा है दूर हटो ऐ दुनिया वालो, हिन्दुस्तान हमारा है। इसी गाने में आगे लिखा गया है शुरू हुआ है जंग तुम्हारा जाग उठो हिन्दुस्तानी, तुम न किसी के आगे झुकना जर्मन हो या जापानी। दूसरे विश्व युद्ध (1939-1945) में भारत मित्र राष्ट्रों की ओर था और वास्तविक रूप में जर्मनी और जापान का शत्रु था। 1942 में सिंगापुर और बर्मा के लड़खड़ाने के बाद भारत में जापानी आक्रमण की चिंता वास्तविक होने लगी। लेकिन अंग्रेज चलाक तरीके से समझते थे कि जंग (युद्ध) का मतलब स्वतंत्रता संघर्ष है और विदेशी का जिक्र गाने में अंग्रेजों के लिए किया गया है। गिरफ्तारी से बचने के लिए कवि प्रदीप भूमिगत हो गए।

15 अगस्त, 1947 को स्वतंत्रता की घोषणा के साथ इस तरह की बाधाएं दूर हो गई। लेकिन राष्ट्रवाद के विषय पर हमने फिल्मों को बनते नहीं देखा। स्वतंत्रता के लंबे संघर्ष के बाद स्वतंत्र देश में देशभक्ति फिल्म का न बनना एक विषय रहा। ऐसा इसलिए कि तुलनात्मक दृष्टि से 1952 की मिस्र की क्रांति पर अनेक फिल्मे बनी और बांग्लादेश की मुक्ति पर भी फिल्में बनी। इस संबंध में कुछ अपवाद भी है। वजाहत मिर्जा ने शहीद फिल्म का लेखन किया और इसका निर्देशन रमेश सहगल ने किया। इस फिल्म ने 1948 में अच्छा व्यवसाय किया। इस फिल्म का गीत वतन की राह में वतन के नौजवां शहीद हो कमर जलालाबादी ने लिखा था। 1950 में सबसे अधिक कामयाब फिल्म थी सामाधि। इसका निर्देशन भी रमेश सहगल ने किया था। कहा जाता है कि यह फिल्म नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की आजाद हिन्द फौज से जुड़ी सच्ची घटना पर आधारित थी। उसी वर्ष आजाद हिन्द फौज पर एक और फिल्म आई। यह फिल्म थी पहला आदमी और इसका निर्देशन महान निर्देशक विमल रॉय ने किया था।

1952 में बंकिमचन्द्र चटर्जी के उपन्यास पर बनी फिल्म आनंद मठ आई। इसका निर्देशन हेमेन गुप्ता ने किया था हेमेन गुप्ता स्वतंत्रता सेनानी थे और वह वर्षों जेल में रहे। हेमेन गुप्ता फांसी से बच गए थे। बाद में उन्होंने फिल्म निर्माण की ओर कदम बढ़ाया। आनंद मठ दस बड़ी फिल्मों में शुमार नहीं हुई। बड़ी फिल्मों में आन, बैजू बावरा, जाल तथा दाग थी जिनमें संगीत, रोमांस, सस्पेंस और सामाजिक ड्रामा था। 1940 और 1950 के दशक में सामाजिक, रोमांटिक, संगीतप्रधान, एक्शन, सस्पेंस, पौराणिक फिल्में बनी। देशभक्ति और राष्ट्रवादी फिल्में अपवाद थीं। 1953 में शोहराब मोदी ने झांसी की रानी फिल्म बनाई लेकिन यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर सफल नहीं हुई। 1953 में शीर्ष पर नंद लाल जसवंत लाल की फिल्म अनारकली रही। इसी तरह 1956 में बंकिमचन्द्र चटर्जी के ऐतिहासिक उपन्यास पर बनी दुर्गेश नंदिनी फिल्म भी असफल साबित हुई।

इसका अर्थ यह नहीं है कि दर्शक राष्ट्रवादी भावना से मुंह मोड़े हुए थे। इसका अर्थ सिर्फ यही था कि भारत के लिए राजनीतिक स्वतंत्रता अकेली चुनौती नहीं थी। इससे पहले 1946 चेतन आनंद की फिल्म नीचा नगर में यह दिखाया गया था कि किस तरह धनवान लोग गांव में रहने वाले गरीबों का शोषण करते है। इस फिल्म को कांस फिल्म समारोह में प्रवेश मिला। 1953 में ख्वाजा अहमद अब्बास ने राही फिल्म का निर्देशन किया। इस फिल्म में असम के चाय बगानों में अंग्रेजी मालिकों द्वारा मजदूरों के शोषण को दिखाया गया था।

स्वतंत्रता के बाद फिल्मों को अपना जीवन मिला। 1940 और 1950 में लोगों की पसंद को देखा गया। नए गणराज्य की अपनी समस्याएं थी और लोगों का ध्यान उसी ओर था। 1950 के दशक की सबसे कामयाब फिल्म महबूब खान की मदर इंडिया (1957) रही। इस फिल्म में गांव की गरीब महिला राधा (नरगिस अभिनित) के दो बच्चों के पालने और धुर्त साहूकार के विरुद्ध संघर्ष को दिखाया गया था। 1955 की सबसे सफल फिल्म थी राज कपूर की श्री 420 । इस फिल्म में गरीबों का खून चूसने वाली पोंजी योजनाओं की विपत्ति को दिखाया गया था। 1959 में ऋषिकेश मुखर्जी ने अनाड़ी फिल्म बनाई। इस फिल्म के हीरो थे राज कपूर। इस फिल्म में शहरों में घातक जहरीली दवाइयों के भयावह परिणाम दिखाए गए थे। स्वतंत्र भारत की समस्याओँ को फिल्मों में जगह मिली।

1960 के दशक में यह जाहिर हुआ कि भारत को केवल आंतरिक चुनौतियों का ही सामना नहीं करना है। सैन्य दृष्टि से भी भारत को तैयार रहना है। देश ने 60 के दशक में 1960 में गोवा मुक्ति युद्ध, 1962 में चीनी आक्रमण और 1965 में पाकिस्तानी आक्रमण को झेला था। फिर 1971 में भी भारत-पाक युद्ध हुआ। इन युद्धों से हम, शौर्य, देशभक्ति और बलिदान को लेकर सचेत हुए।

उसके बाद से अनेक देशभक्ति फिल्में आई। इनमें हकीकत (1964), हमसाया (1968), प्रेम पुजारी (1970), ललकार (1972), हिन्दुस्तान की कसम (1973), विजेता (1982) और आक्रमण (1975) शामिल हैं। अपने समय के मुताबिक प्रहार (1991), बॉर्डर (1997) और एलओसी करगिल (2003), टैंगो चार्ली (2005), शौर्य (2008), 1971 (2007), गाजी अटैक (2017) जैसी फिल्में बनी। इन फिल्मों से साधारण भारतीय लोगों के मन में सेना के प्रति सम्मान बढ़ा।

1960-70  के दशक में अभिनेता हरिकिशन गिरि गोस्‍वामी उर्फ मनोज कुमार ने फिल्‍मों में सकारात्‍मक और देशभक्ति के विचारों का जिम्‍मा संभाला। इसी लिए उन्‍हें ‘’भारत कुमार’’ का उपनाम भी मिला। उन्‍होंने फिल्‍म शहीद (1965) में क्रांतिकारी भगत सिंह की भूमिका अदा की। उनकी उपकार (1967) जैसी फिल्‍मों ने फौज की नौकरी छोड़ चुके व्‍यक्ति के काला बाजारी और नकली दवाओं के जाल में उलझने के खतरों को दर्शाया। पूरब और पश्चिम (1970) में उन्‍होंने पश्चिम में भारतीय संस्‍कृति की अलख जलाये रखी।

1970 के दशक तकभारत को पश्चिम में पिछड़ा और प्रतिगामी देश समझा जाता था। मनोज कुमार ने पूरब और पश्चिम में भारतीय संस्‍कृति की श्रेष्‍ठता को सामने रखा। उदारीकरण के पश्‍चात स्थिति में बदलाव आयाजिसमें सूचना और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में प्रदर्शन ने भारत को वैश्विक स्‍तर पर उदीयमान दर्जा दिलाया। 1960 के दशक के मध्‍य के बाद सेअमरीका और ब्रिटेन जैसे पश्चिम के औद्योगिक देशों में जाने वाले भारतीय नागरिकों की संख्‍या में वृद्धि हुई है। इसने सुदूर राष्‍ट्रवाद की भावना के उदय का मार्ग प्रशस्‍त किया, जिसके द्वारा भारतीय अपनी पहचान पर गर्व करने लगे। ‘’आई लव माई इंडिया’’ (परदेस 1997) जैसे गीतों ने इस भावना को बरकरार रखा।

लगान (2001), चक दे इंडिया (2007)भाग मिल्‍खा भाग (2013)दंगल (2016) जैसी फिल्‍मों ने देशभक्ति की भावना जगाने के लिए खेलों का सहारा लिया। इस संबंध में 29 जून 1911 में कोलकाता में आईएफए शील्‍ड मैच में  मोहन बगान की ईस्‍ट यॉर्कशायर रेजिमेंट पर जीत की घटना पर आधारित अरूण रॉय की बंगाली फिल्‍म इगारो या द इमॉर्टल इलेवन (2011) का उल्‍लेख भी किया जाना चाहिए। यह किसी ब्रिटिश टीम पर किसी भारतीय फुटबॉल क्‍लब की पहली जीत थी। इस घटना के शताब्‍दी वर्ष के अवसर पर आई यह फिल्‍म उसके प्रति श्रद्धांजलि स्‍वरूप थी।

देशभक्ति के प्रति फिल्‍मकारों का आकर्षण बरकरार है और यह इस बात से साबित होता है कि वर्ष 2002 में भगत सिंह के बारे में तीन हिन्‍दी फिल्‍मों का निर्माण किया गया। ये फिल्‍मे थीं - राजकुमार संतोषी की द लिजेंड ऑफ भगत सिंहगुड्डू धनोवा के निर्देशन में बनी 23 मार्च : शहीद और सुकुमार नायर की शहीद-ए-आजम । 2004 में विख्‍यात निर्देशक श्‍याम बेनेगल की फिल्‍म नेताजी सुभाष चन्‍द्र बोस : द फॉर्गाटन हीरो आई। लेकिन बॉक्‍स ऑफिस पर कामयाबी के लिए देशभक्ति ही अकेला जादू नहीं हैजैसा कि चटगांव शस्‍त्रागार विद्रोह (1930-34) पर आधारित आशुतोष गोवारिकर की फिल्‍म खेले हम जी जान से (2010) की नाकामयाबी से साबित हुआ। लेकिन इसमें कोई संदेह नहीं है कि राष्‍ट्रवाद सिनेमा के रूपहले पर्दे पर आने के नये रास्‍ते तलाशना जारी रखेगा। उसे दर्शकों को लुभाने के लिए लगातार खुद को नये सिरे से खोजना जारी रखना होगा।

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  • लेखक दिल्‍ली स्थित स्‍वतंत्र शोधकर्ता और स्‍तंभकार हैं।

लेख में व्‍यक्‍त किये गये विचार उनके निजी विचार हैं।


Monday, September 28, 2020

महिला काव्य मंच मोहाली ने भी कराई ऑनलाइन काव्य गोष्ठी

 शायरी के महिला हस्ताक्षरों ने बिखेरे अपनी कविताओं के रंग 

मोहाली: 28 सितंबर 2020: (अमरजीत कौर हिरदे//हिंदी स्क्रीन)::

बेहद संवेनदशील और जानेमाने पुरुष शायर श्री नरेश नाज़ द्वारा संस्थापित राष्ट्रीय महिला काव्य मंच लगातार सक्रिय है। इस मंच की मोहाली  इकाई की ओर से सितंबर 2020 माह की मासिक कवयित्री गोष्ठी का आयोजन ऑनलाइन गूगल मीट एप पर किया गया। 

इस काव्य गोष्ठी की अध्यक्षता मैडम श्रुति शुक्ला ने की। उन्होंने बेटी दिवस पर अपनी तरफ से पूरे समाज के लिए और खासकर मांओं के लिए कुछ संदेश दिए के वह बेटियों में ऐसे संस्कार पैदा करें कि वह खुद सशक्त होकर जहां माई के परिवार से जुड़कर रहती है वही वह अपने ससुराल के परिवार को जोड़ कर रखें और बड़ों का सानिध्य पाती रहें। और उन्होंने बेटी के प्रेम से ओतप्रोत और उत्साहवर्धक एक काव्य रचना भी प्रस्तुत की। 

ट्राइसिटी अध्यक्ष सुश्री शारदा मित्तल और ट्राइसिटी उपाध्यक्ष राशि श्रीवास्तव का सानिध्य प्राप्त रहा। इसमें मोहाली की विदुषी कवयित्रियों ने मन से मंच तक में  कविता पाठ किया। कार्यक्रम  का संचालन डॉ रूपेंद्र जीत कौर ने किया। महिला काव्य मंच मोहाली इकाई की अध्यक्ष अमरजीत कौर हृदय ने सभी मेहमानों का स्वागत किया और गोष्ठी के अंत में सभी का धन्यवाद किया। 

काव्य गोष्ठी का शुभारम्भ सरस्वती वंदना से हुआ। इस रस्म को निभाने की औपचारिकता सुधा जैन 'सुदीप' द्वारा  विशेष रूप से मां सरस्वती को ज्योति प्रज्ज्वलित एवं पुष्प अर्पित करके की गई। 

गोष्ठी में सोनिमा सत्या, मीनू सुखमन, डॉ. सुनीत मदान, सुरिंदर कौर चिंगारी, प्रभजोत कौर, सुधा जैन 'सुदीप', डेजी बेदी जुनेजा, नीना सैनी, शैलजा पांडे, नीरजा शर्मा, संगीता शर्मा कुंद्रा अध्यक्ष चंडीगढ़ इकाई और संगीता गर्ग अध्यक्ष पंचकूला इकाई आदि ने काव्य पाठ किया। इसके साथ ही चंडीगढ़ और पंचकूला की बहुत सारी कवित्रीयोन ने श्रोताओं के रूप में शामिल हो कर कविता पाठ का आनंद लिया।

Wednesday, September 23, 2020

टेली-लॉ कार्यक्रम पर सफलता की कहानियों की पहली पुस्तिका

23-सितम्बर-2020 10:15 IST

'रीचिंग द अनरिच्‍ड-वॉइसेज ऑफ द बेनिफिसिएरीज' जारी


 नई दिल्ली: 23 सितंबर 2020: (पीआईबी//हिंदी स्क्रीन)::

न्याय विभाग ने टेली-लॉ कार्यक्रम पर सफलता की कहानियों की पहली पुस्तिका का ई-संस्करण 'रीचिंग द अनरिच्‍ड - वॉइसेज ऑफ द बेनिफिसिएरीज' शीर्षक के तहत जारी किया। 

टेली-लॉ कार्यक्रम ने 29 राज्यों एवं केंद्रशासित प्रदेशों के 115 आकांक्षी जिलों सहित 260 जिलों के दूरदराज के क्षेत्रों में 3 लाख से अधिक लाभार्थियों को कानूनी सलाह प्रदान की समय पर एवं बहुमूल्य कानूनी सलाह प्रदान करने के लिए इस पहल के तहत गरीब, दलित, कमजोर और दूरदराज के समूहों एवं समुदायों को पैनल के वकीलों से जोड़ने के लिए स्मार्ट तकनीकों का उपयोग किया गया। 

केंद्रीय न्‍याय विभाग ने अपने टेली-लॉ कार्यक्रम की यात्रा को मनाने के लिए 'टेली-लॉ - रीचिंग द अनरिच्ड, वॉइसेज ऑफ द बेनिफिसिएरीज' शीर्षक के तहत अपनी पहली पुस्तिका जारी की है। यह लाभार्थियों की वास्तविक जीवन की कहानियों और टेली-लॉ कार्यक्रम के तहत उन्‍हें विवादों को सुलझाने के लिए दी गई कानूनी सहायता का एक मनोरम पठनीय संग्रह है। इस प्रकार के विवाद दैनिक जीवन को प्रभावित करते हैं। वर्तमान में इस कार्यक्रम के तहत 29 राज्यों एवं केंद्रशासित प्रदेशों के 260 जिलों (115 आकांक्षी जिलों सहित) और 29,860 सीएससी के जरिये भौगोलिक रूप से दुर्गम एवं दूरदराज के क्षेत्रों में 3 लाख से अधिक लाभार्थियों को कानूनी सलाह दी गई है।

यह पठनीय पुस्तिका कानूनी सहायता के एक अनिवार्य घटक के तौर पर कानूनी सलाह लेने के लिए ग्रामीणों को शिक्षित करने और उन्‍हें प्रोत्साहित करने में पैरालीगल स्वयंसेवकों और ग्रामीण स्तर के उद्यमियों की भूमिका को उजागर करती है। यह वैकल्पिक विवाद तंत्र के माध्यम से अपने विवादों को निपटाने में आम आदमी के डर और मिथकों को सफलतापूर्वक तोड़ती है। बहुत ही सरल कहानियों में यह 6 श्रेणियों को उजागर करता है जिनमें अन्याय के खिलाफ लड़ाई, संपत्ति विवादों का निपटान, कोविड पीडि़तों को राहत देना, सूचना के साथ सशक्तिकरण, प्रक्रियागत बाधाओं से निपटना और घरेलू शोषण के खिलाफ कार्रवाई शामिल हैं।

भारत सरकार के 'डिजिटल इंडिया विजन' के अुनरूप न्याय विभाग इस कार्यक्रम को गति देने और न्‍याय तक सभी की पहुंच को वास्‍तविक बनाने के लिए 'उभरते' और 'स्‍वदेशी' डिजिटल प्लेटफॉर्मों का उपयोग कर रहा है। इस उद्देश्य को पूरा करने के लिए वर्ष 2017 में टेली-लॉ कार्यक्रम को लॉन्‍च किया गया था ताकि मुकदमेबाजी से पहले के चरण में ही विवादों को निपटाया जा सके। इस कार्यक्रम के तहत पंचायत स्तर पर कॉमन सर्विस सेंटर के व्‍यापक नेटवर्क के तहत वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के लिए स्‍मार्ट तकनीक, टेलीफोन/ इंस्टेंट कॉलिंग आदि सुविधाएं उपलब्‍ध हैं। इन सुविधाओं का उपयोग गरीब, दलित, कमजोर, दूरदराज के समूहों एवं समुदायों को पैनल के वकीलों से जोड़ने के लिए जाता है ताकि उन्‍हें समय पर एवं बहुमूल्य कानूनी सलाह दी जा सके।

कानूनी विवादों का शुरू में ही पता लगाने, उनमें हस्तक्षेप करने और उनकी रोकथाम की सुविधा उपलब्‍ध के लिए विशेष तौर पर डिजाइन की गई टेली-लॉ सेवा सीएससी- ई जीओवी और एनएएलएसए द्वारा उपलब्‍ध कराए गए अग्रणी स्वयंसेवकों के एक कैडर जरिये समूहों और समुदायों तक पहुंचती है। ये जमीनी स्‍तर के योद्धा अपने क्षेत्र में गतिविधियों के दौरान आवेदकों के पंजीकरण और अपॉइंटमेंट के लिए एक मोबाइल एप्लिकेशन से लैस होते हैं। लाभार्थियों को निरंतर कानूनी सलाह एवं परामर्श प्रदान करने के लिए समर्पित वकीलों के एक समूह को तैनात किया गया है। समृद्ध आईईसी को उसके सार्वजनिक पोर्टल पर अपलोड किया गया है जिसे https://www.tele-law.in पर एक्सेस किया जा सकता है। वास्तविक समय में डेटा हासिल करने और प्रदान की गई सलाह की प्रकृति को देखने के लिए एक अलग डैशबोर्ड तैयार किया गया है। निकट भविष्य में जिला स्तर पर विस्‍तृत विवरण सुनिश्चित करने के लिए डेटा को पीएमओ प्रेयर्स पोर्टल पर भी डाला जा रहा है। 

देश के सभी जिलों को कवर करने की आकांक्षा और कानूनी सहायता श्रृंखला के तहत टेली-लॉ को एक अद्भुत स्तंभ के रूप में स्थापित करने के लिए न्याय विभाग तिमाही आधार पर इस प्रकार की परिवर्तनकारी एवं सशक्तिकरण वाली कहानियों का प्रकाशन जारी रखेगा।

'टेली-लॉ - रीचिंग द अनरिच्ड, वॉइसेज ऑफ द बेनिफिसिएरीज' पुस्तिका देखने के लिए यहां क्लिक करें

******** नई पुस्तिकाएं//हिंदी स्क्रीन 

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है !

 जनता की रोके राह, समय में ताव कहां? 


सदियों की ठण्डी-बुझी राख सुगबुगा उठी,

मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;

दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है ।

 

जनता? हाँ, मिट्टी की अबोध मूरतें वही,

जाड़े-पाले की कसक सदा सहनेवाली,

जब अँग-अँग में लगे साँप हो चूस रहे

तब भी न कभी मुँह खोल दर्द कहनेवाली ।


जनता? हाँ, लम्बी-बडी जीभ की वही कसम,

"जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।"

"सो ठीक, मगर, आखिर, इस पर जनमत क्या है ?"

'है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है?"


मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं,

जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में;

अथवा कोई दूधमुँही जिसे बहलाने के

जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में ।


लेकिन होता भूडोल, बवण्डर उठते हैं,

जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है;

दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है ।


हुँकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,

साँसों के बल से ताज हवा में उड़ता है,

जनता की रोके राह, समय में ताव कहाँ ?

वह जिधर चाहती, काल उधर ही मुड़ता है ।


अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अन्धकार

बीता; गवाक्ष अम्बर के दहके जाते हैं;

यह और नहीं कोई, जनता के स्वप्न अजय

चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं ।


सब से विराट जनतन्त्र जगत का आ पहुँचा,

तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो

अभिषेक आज राजा का नहीं, प्रजा का है,

तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो ।


आरती लिए तू किसे ढूँढ़ता है मूरख,

मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में ?

देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,

देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में ।


फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,

धूसरता सोने से शृँगार सजाती है;

दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,

सिंहासन खाली करो कि जनता आती है। 

                         --रामधारी सिंह "दिनकर" 

Saturday, September 5, 2020

लगातार जारी है अमृता प्रीतम का जादू

 चंडीगढ़ में अमृता प्रीतम की शब्द शक्ति पर हुआ विशेष वेबिनार 
चंडीगढ़: 03 सितंबर 2020: (पुष्पिंदर कौर//हिंदी स्क्रीन)::
शब्द रुकते नहीं शब्द झुकते नहीं!
शब्द दबते नहीं, शब्द मरते नहीं!
ये करिश्मा हैं कुदरत का देखो ज़रा!
इनसे बातें करो, इनको सुन लो ज़रा!                         (कार्तिका सिंह)
अक्सर लगता है कि शब्द अतीत हो गए लेकिन वे हमेशां वर्तमान  बने रहते हैं। अतीत की कहानियां भी सुनाते हैं और भविष्य की दस्तक का भी पता देते हैं। बहुत खुशकिस्मत होते हैं वे लोग जो शब्दों को समय पर सुन लेते हैं और इनमें छिपे रहस्य भी समझ लेते हैं। इन कालजयी शब्दों की रमज़ समझने के लिए इनसे एकरूप होना भी आवश्यक है। इनका जादू जब चलने लगता है तो फिर किसी से नहीं रुकता।
"मैं तवारीख हां हिंद दी" अमृता प्रीतम के 101वें जन्मदिन को समर्पित समागम "अनुरूप साहित्य संवाद मंच पंजाब" और "काव्य शास्त्र" (पंजाबी पत्रिका) के संयुक्त प्रयास से 31 अगस्त 2020 को पंजाबी साहित्य की शीर्ष लेखिका अमृता प्रीतम जी के 101वें जन्मदिन के अवसर पर एक रोज़ा वेबीनार और कवि दरबार आयोजित किया गया। आयोजन का शुभारम्भ अमरजीत कौर हिरदे के स्वागतीय भाषण से हुआ। उन्होंने कहा कि अमृता प्रीतम के जीवन,  साहित्य और शख्सियत को नए संदर्भ से पुनर्मूल्यांकन  करने की आवश्यकता है।  'अमृता प्रीतम की शख्सियत के विचारधाराई बिंब' सिरलेख के अंतर्गत उसकी शख्सियत और साहित्य के विश्वव्यापी पहलूओं के ऊपर कई अन्य पंजाबी चिंतकों ने भी महत्वपूर्ण विचार प्रस्तुत किए। 
वेबीनार में डॉक्टर दरिया (प्रमुख पंजाबी विभाग, गुरु नानक देव यूनिवर्सिटी) ने अपने विचार प्रस्तुत करते हुए कहा कि, "अमृता प्रीतम की शख्सियत पंजाबी साहित्य, साहित्यिक पत्रकारिता और लोक मनों के ऊपर छाई हुई है। अमिया कुंवर (पंजाबी लेखिका और आलोचिका) ने अमृता प्रीतम के साथ बिताए अपने पलों के अनुभवों को श्रोताओं के सन्मुख बहुत खूबसूरती से प्रस्तुत किया। डॉक्टर प्रवीण कुमार (पंजाब यूनिवर्सिटी चंडीगढ़) ने कहा कि उनकी शख्सियत बहु-विधावी, बहु-दिशावी प्रभाव रखती है और पंजाबी कावि-आलोचना पर उसकी सियासत के संदर्भ में उसकी जद्दो-जहद, सिर्जना और जीवन के नए आयाम प्रस्तुत किए। डॉ अमरजीत सिंह (मुखी पंजाबी विभाग संत बाबा भाग सिंह यूनिवर्सिटी) ने अमृता प्रीतम को अंतरराष्ट्रीय पंजाबी सृजक के तौर पर मानता देते हुए कहा कि उनकी शख्सियत और साहित्य के विश्वव्यापी पहलूओं, साहित्यक राजनीति के प्रभाव और लोक चेतना में बसे बिंब को समग्र रूप में देखने की आवश्यकता है। डॉ कुलदीप सिंह (कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी) ने अमृता प्रीतम के साहित्य के विचारधाराई पहलुओं का आलोचनात्मक विश्लेषण प्रस्तुत किया। इस सैशन का मंच संचालन डॉक्टर रूपिंदरजीत कौर (संत बाबा भाग सिंह यूनिवर्सिटी) ने किया।
इस आयोजन के दूसरे सैशन में कवि दरबार किया गया। जिसमें पंजाबी जुबान के अजीम शायरों ने शिरकत की। अमरजीत कौर हृदय ने आए हुए कवियों का स्वागत करते हुए अमृता प्रीतम की समकालीन सार्थकता के बारे में अपने विचार प्रस्तुत किए और उसके ऊपर अपनी कविता प्रस्तुत की। 
"जेकर तेरे कोल कुझ सी तां ओह सी तेरा इश्क 
तेरा हुनर अते    
तेरी कलम था जुनून 
अते एक तेरी साफगोई 
जिवें चिकड विच कमल 
इस काव्य महफिल में स्वामी अंतर नीरव, सेवा सिंह भाषो, सुदेश नूर मौदगिल, प्रिंसिपल जगदीप कौर अहूजा, नीना सैनी,  भूपिंदरप्रीत कौर, अमरजीत कसक, डॉक्टर सनोबर चिब, निम्मी वशिष्ठ, कुलदीप चिराग, रजनी वालिया, लखविंदर कौर लकी, ने अमृता प्रीतम की कविताएं और उसके जीवन चेतना, संवेदना और विचारधाराक नुक्ता-निगाह से कवियों ने अपनी शायरी प्रस्तुत की और उसको श्रद्धांजलि भेंट की। इस सैशन का मंच संचालन डॉ हरप्रीत सिंह (संत बाबा भाग सिंह यूनिवर्सिटी) ने किया। 
अब इसकी आयोजक टीम किसी नए आयोजन की तैयारी में है जिसका दिन, तारीख और समय जल्द ही बताया जायेगा। आप इसमें शामिल होने की तैयारी रखिये।  

Wednesday, September 2, 2020

जनाब दुष्यंत कुमार के जन्मदिन पर डा. कुमार विश्वास

दुष्यंत के तेज़ाबी तेवरों में एक बार फिर असली कलम का रंग 
जनाब दुष्यंत कुमार साहिब की शायरी झलक 

सोशल मीडिया
: 2 सितंबर 2020: (हिंदी स्क्रीन ब्यूरो)::
विदेश से लेकर पंजाब की हर गली तक जन चेतना  लगी पत्रकार सोनिया के
साथ जानेमाने शायर डाक्टर कुमार विश्वास
 
आज के दौर में जो शायर लोकप्रियता के शिखर छू रहे हैं उनमें डाक्टर कुमार विश्वास भी विशेष तौर पर ख़ास शायरों में से गिने जाते हैं। पहली सितंबर के मौके पर उन्होंने कालजयी शायर दुष्यंत कुमार को बहुत ही श्रद्धा से अपने श्रद्धा सुमन अर्पित किये। उन्होंने अपने फेसबुक प्रोफाईल पर कहा:
कविता के चाहने वाले अक्सर मुझसे पूछते हैं कि ये ‘कालजयी-कविता’ कैसी होती है ! आइए समझाने की कोशिश करता हूँ ! आपातकाल के दौरान जब हमारे देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व इंदिरा गाँधी जी ने सत्ता के अहंकार और चमचों की जय-जयकार में मग्न होकर भारतीय-लोकतंत्र को व्यक्ति-निष्ठा के आगे नतमस्तक करने की कोशिश की थी तो उसी पार्टी की राज्य सरकार में कार्यरत कवि-ग़ज़लकार दुष्यन्त कुमार ने अपनी ग़ज़लों के माध्यम से बेख़ौफ़ उन्हें सच का आईना दिखाया था ! उस वक़्त की बंधक सरकारी-मशीनरी, घुटने टेकती मीडिया और इमरजेंसी को ‘अनुशासन-पर्व’ बताते भयभीत बौद्धिकों से उम्मीद हार चुकी आम जनता की ज़ुबान, दुष्यंत के तेज़ाबी तेवरों में मुखरित होने लगी ! याद रखिए ये आज से पैंतालीस साल पहले का इतिहास है😳! 
अब समझिए ‘कालजयी’😂! दुष्यंत कुमार के जन्मदिन पर आज जब हमने, आज से भी पाँच साल पहले बनाए ‘महाकवि सीरियल के ये पैंतालीस साल पहले लिखे अंश, कवि को श्रद्धांजलि स्वरूप, सोशल मीडिया पर लगाए तो ‘व्यक्ति-निष्ठा’ की उसी पुरानी बीमारी के युगीन शिकारों ने लगभग हर ग़ज़ल के नीचे ‘गाली-गुफ्तार’ करनी शुरू कर दी ! वे भड़क उठे कि मैं व्यवस्था का विरोध कर रहा हूँ बिना ये जाने की ये पैंतालीस साल पुरानी ग़ज़लें हैं और उस वक़्त की व्यवस्था के ख़िलाफ़ रची गई थीं😂! पढ़कर मैं तो बहुत हँसा कि चलो इनकी इस संकुचित सोच के कारण हमारा बड़ा कवि तो ‘कालजयी रचनाकार’ सिद्ध हो ही रहा है, सत्ता के अकारण अहंकार और व्यक्ति को व्यवस्था समझने वाले जय-जयकारी भक्त भी जय के तस, आजतक वैसे ही बराबर मौजूद है, यह भी सिद्ध हो ही रहा है ! अब आप समझे, यह होता है “कालजयी कवि” और यह होती है उसकी कालजयी कविता 😍😍🇮🇳👍!
ख़ैर आज उस खुद्दार कवि दुष्यंत कुमार के जन्मदिन के समापन से पहले, आइए देखिए ये एपिसोड और जानिए कि अंधभक्ति की अलोकतांत्रिक ख़ुराक पाकर कैसे धीरे-धीरे, हर दौर, हर सरकार, हर व्यवस्था में सच सुनने की शिद्दत ख़त्म होती जाती है लेकिन हर दौर में कवि बिना डरे उस अहंकार की आँखों में आँखें डालकर जनता के सवाल पूछता ही है ! न व्यवस्था का ग़ुरूर बदला न कवि का बेबाक़ सच कहने का सुरूर 😍🇮🇳 !
बक़ौल हमारे राजनैतिक विद्यालय के कवि-कुलपति अटलजी “सरकारें तो आएँगी जाएँगी, पार्टियाँ बनेंगी बिगड़ेगी, सत्ता का खेल तो चलेगा लेकिन ये देश रहना चाहिए, इसका लोकतंत्र रहना चाहिए !”
🇮🇳👍 देश और सच को कभी मत छोड़िए ! देश का मसला हो तो अपने “आप” के ख़िलाफ़ भी बोलिए और अपने बाप के ख़िलाफ़ भी बोलिए 😂😂! जयहिंद 


शशि थरूर साहिब ने याद दिलाई दुष्यंत कुमार साहिब की

 सत्ता और सियासत पर बहुत ही सधी हुई चोट मारती है शायरी 
लुधियाना: 2 सितंबर 2020: (रेक्टर कथूरिया//हिंदी स्क्रीन)::
शशि थरूर 
अभी हाल ही में हमें जिन सदमों से दो चार होना पड़ा उनमें एक सदमा डाक्टर राहत इंदौरी साहिब के बिछड़ने का भी रहा। जब कुछ विशेष किस्म के लोग हिन्दोस्तान को अपनी जागीर समझने का राग अलाप रहे थे उस समय बार बार याद एते रहे जनाब राहत साहिब:
सभी का खून है शामिल यहां की मिट्टी में, 
किसी के बाप का हिन्दोस्तान थोड़ी है?
कभी इसी तरह के तेवर हिंदी शायर जनाब दुष्यंत कुमार साहिब के हुआ करते थे। तकरीबन हर बात पर उनका कोई शेयर याद आ जाता था। सत्ता और सियासत पर दुष्यंत साहिब की शायरी बहुत ही असरदायिक चोट करती थी। 
सभी को लपेटे में लेते हुए कभी जन जन के दिल पर शासन करने वाले दुष्यंत कुमार साहिब ने लिखा था:
आज सड़कों पर लिखे हैं सैंकड़ों नारे न देख

घर अँधेरा देख तू आकाश के तारे न देख
आज फिर दुष्यंत साहिब की याद बहुत ही शिद्द्त से दिलाई है जनाब शशि थरूर साहिब ने। उन्होंने टविटर पर टवीट करते हुए जनाब दुष्यंत साहिब के एक बहु चर्चित रहे शेयर को भी सामने रखा। यह शेयर बहुत ही चर्चा में रहा था: 
अब तो इस तालाब का पानी बदल दो 
ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं 
जनाब शशि थरूर ने इस शेयर को अपने टवीट का मुखड़ा बनाते हुए दुष्यंत साहिब के ही कुछ अन्य शेयरों पर आधारित एक तस्वीर भी साथ ही पोस्ट की है।

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए;
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए। 

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी;
शर्त थी लेकिन कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए। 

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में;
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए। 

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं;
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए। 

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही;
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए। 

सत्ता और सियासत पर बहुत ही सधी हुई चोट मारती है शायरी इस बात को जाने माने शायरों ने कई कई बार साबित किया है। पुरानी कविता से लेकर नयी कविता तक इस तरह के तेवर जारी हैं। अब देखना है कि इस तरह की शायरी सियासत की दुनिया पर सच में कितना असर डाल सकती है!
उल्लेखनीय है कि कल अर्थात पहली सितंबर को जनाब दुष्यंत कुमार साहिब का जन्म दिन भी था जिसे बहुत से लोगों ने अपने अपने तौर पर मनाया। शशि तहररोर साहिब की पोस्ट उसी सेलिब्रेशन का एक  कही जा सकती है। बहुत से अन्य वशिष्ठ लोगों ने भी अपने अपने अंदाज़ में इस दिन को मनाया। उनका ज़िकर हम अलग पोस्टों में कर रहे हैं।