Saturday, July 25, 2020

वो दो रोटियां-आशीर्वाद है मेरे लिए//*रुबीता अरोड़ा

25th July 2020 at 11:05 AM
 आज भी मेरी यादों का खास खज़ाना हैं वो दो रोटियां 
प्रतीकत्मक तस्वीर जिसे Cottonbro ने 25 अक्टूबर 2019 को 8:46 बजे सुबह खींचा  
मैं अपने मायके में सबसे छोटी थी,सबकी लाडली। कभी ज़्यादा काम नहीं किया था। लेकिन ससुराल में मैंने बड़ी बहू बन कर कदम रखा। ऊपर से सासु मां अक्सर बीमार रहती थी इसीलिए परिवार की सारी ज़िम्मेदारी मुझ पर आ पड़ी। समय पर सबको खाना देना, पूरे घर का ध्यान रखना आदि आदि। इन सबमें सामंजस्य बिठाने की कोशिश कर रही थी कि तभी मेरी दादी सास, जो पहले अलग घर में रहती थी, अब हमारे साथ रहने आ गई। घर में एक सदस्य तो बढा पर दादी के स्वभाव ने दिल जीत लिया। अस्सी साल की बूढ़ी दादी छड़ी लेकर पूरे घर में घूम-फिर कर निरीक्षण करती, हर किसी का ध्यान रखती, प्यार की मूरत लेकिन जरूरत पड़ने पर किसी को भी डाँटने की आदत ने जल्द ही उन्हें  पूरे घर की जान बना दिया। मुझे रोज़ अकेले सबका काम करते देखती तो उन्हे बहुत बुरा लगता। बस इसीलिए वे हमेशा किसी न किसी तरीके से मेरी मदद करने की कोशिश के चक्कर में मौका मिलते ही रसोई मे चली जाती पर भारी-भरकम शरीर, कमज़ोर आंखों की वजह से कुछ और ही कर बैठती और उनकी पकाई रोटियों का तो कहना ही क्या मोटी मोटी आधी कच्ची, आधी जली हुई जिन्हें खाना मेरे लिए आसान न होता हालाकिं बाकी सदस्य चुपचाप खा लेते। मैं हमेशा मना करती, बार-बार कहती आप आराम करो। मै बना लूंगी। कई बार तो हाथ पकड़ कर जबरदस्ती बिठाना पड़ता लेकिन वह भी कहां मानने वाली थीं। जब भी मै कही इधर-उधर किसी काम से बाहर जाती या किसी दिन काम ज़्यादा होता तो थक कर सो जाती तो उन्हें मौका मिल जाता, चुपचाप रसोई में जाती और फिर पूरे परिवार की रोटियां सेंक डालती। 
*लेखिका रुबीता अरोड़ा 
सबके लिए सेंकने के बाद दो अलग से सेंकती, बेहद सावधानी के साथ और उन्हे बडे प्यार से अलग से लपेट कर रखती। जब मै रसोई मे जाने लगती तो पहले ही निर्देश देती मैने सबकी रोटियां सेंक दी है, तेरी दो अलग से बनाकर रखी है-पतली पतली, छोटी-छोटी जैसी तू खाती है। मना मत करना मैने बड़े प्यार से बनाई है। 
रोटियां देखती तो उनमें और बाकी रोटियों में कोई ज्यादा अंतर न होता पर उनमें दादी का मेरे प्रति प्यार जरूर झलकता। कई बार देवर शरारत से रोटियां हाथ में लेकर कहता हमारे लिए कच्ची-पक्की और अपनी बहू के लिए अच्छी-अच्छी आज तो ये दो रोटियां मैं खाऊँगा तो दादी छड़ी लेकर उसके पीछे भागती, उस पर चिल्लाती और हम सब खूब हंसते। दादी का कहना था बहू दिन-रात हमे हमारी मर्जी का खिलाती है तो उसका भी हक है कभी-कभार आराम से बैठकर खाने का। कई बार बाहर से कुछ खाकर आओ तो वैसे भी भूख न होती पर दादी के प्यार के सामने नतमस्तक होना पडता।  वो दो रोटियां साधारण न रहकर आशीर्वाद बन जाती मेरे लिए। भूख न होने के बावजूद मुझे खानी पडती। परन्तु ये हर बार मुझे अहसास दिलाती कि मैं भी परिवार की महत्वपूर्ण सदस्य हूं और परिवार में कोई है जो मेरे लिए इतना सोचता है। आज चूंकि दादी इस दुनिया में नहीं है तो कोई नहीं है इस तरह प्यार से बिठाकर खिलाने के लिए, खुद ही बनाना पडता है। बहुत याद आती हैं वो दो रोटियां। मिस यू दादी। 
 *रुबिता अरोड़ा मूल तौर एक शिक्षिका के तौर पर कार्यरत हैं लेकिन साहित्य में रूचि के चलते वह अक्सर ज़िंदगी की छोटी बड़ी बातों पर लिखती रहती हैं 

Monday, July 20, 2020

मंजुल भारदवाज ने मज़दूर यूनियनों को भी आड़े हाथों लिया

 पैदल चलते इस सत्याग्रह की शुरुआत किसी ने नहीं की 
मुंबई: (सायली पावसकर रंगकर्मी//हिंदी स्क्रीन)::
आज के इस दौर में जहां बाज़ारवाद, भूमंडलीकरण लोकतंत्र के मूल्यों को नष्ट कर रहा है, जहां समाज असंवेदनशील होकर तालियां और थालियां बजा रहा है, जहां जनप्रतिनिधि बुनियादी, कल्याणकारी सेवाएं प्रदान करने के बजाय केवल घोषणा कर रहें हैं, वहां मजदूर गांधी के अहिंसा के मार्ग का अनुसरण कर रहें हैं।  इस विचार को ध्यान में रखते हुए, मंजुल भारद्वाज जैसे रचनाकार अपने कार्यों से न्याय, समता और समानता के मूल्यों को भारतीय लोकतंत्र के जड़ों से जोड़  कर नए राजनैतिक सूत्रपात को प्रस्थापित कर रहें हैं।
इन मुद्दों का यहां पूरी तरह से विश्लेषण हो, कि जिन मजदूरों के नाम पर इतने सारे ट्रेड यूनियन और मज़दूर यूनियन खड़े हैं, वे श्रमिकों में इस दृष्टि को जागृत करने और उन्हें अपनी ताकत का एहसास कराने में सक्षम नहीं हो पाए। "यूनियन" मालिकों और सरकार से लड़ती है। मज़दूर यूनियन पेंशन और अधिकारों के लिए लड़ती है। पैदल चलते इस सत्याग्रह की शुरुआत किसी ने नहीं की थी। घर जाने की उनकी प्रतिबद्धता, यह उनके होने की और उनके सुरक्षा की प्राथमिकता थी।  इसीलिए ये मज़दूर बिना किसी आंदोलन या मोर्चा के संगठित हुए। 
भारत आत्मनिर्भर था जब गांव समृद्ध थे। गांव के किसान आज भी विश्व के पोषणकर्ता हैं। राजनैतिक वर्चस्ववाद ने, अपने विकास को बेचने के लिए नव उदारवादी विचारों से शहर निर्माण किए। परजीवी शहरों ने भूमंडलीकरण के बाजारों को सींचा। आज भी अपने गांव स्वावलंबी हैं। हमारे सत्ताधीश जिस आत्मनिर्भरता की बात कर रहें हैं, उनका खोखलापन और भाषणबाजी की निरर्थकता को दर्शाने वाली यह रचना ..
क्रूर मज़ाक और मौन भारत! नामक काव्य रचना में मंजुल भारदवाज कहते हैं:
थोथा चना बजा घना
मज़दूरों की मौत
मज़दूरों का पलायन
और
‘आत्म निर्भर भारत’
मोदी का क्रूर मज़ाक!
अंतर जान लीजिये
संसाधन हीन मज़दूर
साधन सम्पन्न मोदी
संकल्प हीन मोदी
संकल्पबद्ध मज़दूर
रस्ते पर बच्चे को
जन्म देती माँ
ग़रीबों को बच्चों को
मौत देता मोदी
श्रमिकों को बर्बाद करने के लिए
12 घंटे का बंधुआ गुलाम बनाता मोदी
पूंजीपतियों को 20 लाख करोड़
मज़दूर रस्ते पर पैसे पैसे को मोहताज़
संकट काल में
देश में निर्मित चप्पल पर
चलता आत्म निर्भर भारत
मौन भारत ने आज
अपने टीवी पर
फिर सुना
प्रधान का क्रूर मज़ाक है !
लेखिका सायली पावसकर रंगकर्मी
मैं पिछले कुछ दिनों से इस प्रणाली की कमज़ोरी को महसूस कर रही हूँ, हम सभी कोरोना के साथ अपने जुनून और अथक प्रयासों से लड़ रहें हैं। लेकिन भूख, भय, भ्रम और मूल कारणों पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय दिशा बदलने के कई प्रयास सामने आ रहें हैं। संवेदनहीन होकर मन को परेशान करने वाले सवालों को अनदेखा नहीं कर सकते, उन्हें अपनी कला के माध्यम से, रचनाओं के माध्यम से, हम रंगकर्मी अभिव्यक्त कर रहें हैं,  इनपर चर्चा-विचार मंथन करके इन मुद्दों को एक सार्थक दिशा दे रहें हैं जिससे हम भी स्वस्थ रहें और विश्व भी।
सच हमेशा कड़वा होता है इसलिए सच्चाई को सवालों के स्वरूप में सामने रखना पड़ता है, जिसकी आज जरूरत है।  आज व्यवस्था के खोखलेपन पर प्रश्न उठाना आवश्यक है, क्योंकि यदि इन प्रश्नों का अब हल नहीं निकाला, तो वे अधिक भयानक रूप में सामने आएंगे।  इसलिए मेरे लिए इन सवालों को स्वीकारना और इनका सामना करना बहुत सकारात्मक है।  इन कविताओं के माध्यम से, कवि हम सभी से पूछता है कि हम इन सवालों में, यथार्थ में, न्याय और समता के कलात्मक रंगकर्म में और मजदूरों के संघर्ष में कहां हैं? (क्रमशः) बाकी अगली पोस्ट में
लेखिका:
सायली पावसकर रंगकर्मी
pawaskarsayali31@gmail.com
स्टेज के महारथी मंजुल भरद्वाज से सम्पर्क का ईमेल पता है:Manjul Bhardwaj <etftor@gmail.com>

Sunday, July 19, 2020

अंतिम व्यक्ति का विश्वास सरकार से उठ चुका है

मंजुल भारद्वाज की कविताओं ने मोड़ा राजनैतिक बहस का रुख!
मुंबई: (सायली पावसकर रंगकर्मी//हिंदी स्क्रीन)::
अंतिम व्यक्ति लोकतंत्र की लड़ाई लड़ रहा है! अपनी इस काव्य रचना में मंजुल भारद्वाज कहते हैं:
रंगचिंतक मंजुल भारदवाज 
भारतीय समाज और व्यवस्था का
अंतिम व्यक्ति चल रहा है
वो रहमो करम पर नहीं
अपने श्रम पर
ज़िंदा रहना चाहता है
व्यवस्था और सरकार
उसे घोंट कर मारना चाहती है
अपने टुकड़ों पर आश्रित करना चाहती है
उसे खोखले वादों से निपटाना चाहती है
अंतिम व्यक्ति का विश्वास
सरकार से उठ चुका है
उसे अपने श्रम शक्ति पर भरोसा है
जब भगवान, अल्लाह के
दरबार बन्द हैं
उनकी ठेकेदारी करने वाली
यूनियन लापता हैं
तब अंतिम व्यक्ति ने
अपनी विवशता को ताक़त में बदला है
मरना निश्चीत है तो
स्वाभिमान से जीने का संघर्ष हो
अंतिम व्यक्ति अपनी मंज़िल पर चल पड़ा है
वो हिंसक नहीं है
पुलिस और व्यवस्था की हिंसा सह रहा है
मुख्य रास्तों की नाकाबन्दी तोड़
नए रास्तों पर चल रहा है
उसके इस अहिंसक सत्याग्रह ने
सरकार को नंगा कर दिया है
सोशल मीडिया, ट्विटर ट्रेंड के
छद्म को ध्वस्त कर दिया है
गोदी मीडिया को 70 महीने में
पहली बार निरर्थक कर दिया है
अंतिम व्यक्ति का
यह सविनय अवज्ञा आंदोलन है
लोकतंत्र की आज़ादी के लिए
वो कभी भूख से मर रहा है
कभी हाईवे पर कुचला जा रहा है
कहीं रेल की पटरी पर मर रहा है
पर अंतिम व्यक्ति चल रहा है
जब मध्यम वर्ग अपने पिंजरों में
दिन रात कैद है
तब भी यह अंतिम व्यक्ति
दिन रात चल रहा है
सरकार को मजबूर कर रहा है
अपनी कुर्बानी से मध्यम वर्ग के
ज़मीर को कुरेद रहा है
ज़रा सोचिए देश बन्दी में
यह अंतिम व्यक्ति लोकतंत्र के लिए
लड़ रहा है
यह गांधी की तरह
अपनी विवशता को
अपना हथियार बना रहा है
शायद गांधी को पहले से पता था
उसके लोकतंत्र और विवेक का
वारिसदार अंतिम व्यक्ति होगा!
लेखिका सायली पावसकर रंगकर्मी
गांधी ने कहा था, गांव की ओर चलो!  गांधी के इन शब्दों को आज मज़दूरों ने सार्थक किया है। गांधी का विचार है कि देश की वास्तविक प्रगति ग्रामीण विकास पर आधारित हो।  मजदूरों के इस सत्याग्रह ने बताया कि आत्मनिर्भरता की असली जड़ गांव में है।  (इसीलिए संकट के समय सभी लोग अपने गांव गए)।  यदि गांवों में शाश्वत विकास की जड़ें मजबूत होती, तो मजदूरों को अपने गांवों, घरों और परिवारों को छोड़कर परजीवी शहरों में आने की आवश्यकता ही नहीं होती।
उपरोक्त कविता की रचना उसी अंतिम व्यक्ति के बारे में है, जो गांधी का अंतिम (हाशिये का व्यक्ति) व्यक्ति, कार्ल मार्क्स का सर्वहारा और अंबेडकर का शोषित व्यक्ति है।  गांधी ने इस हाशिये के व्यक्ति को राजनैतिक प्रक्रिया से जोड़ा और भारतीय लोकतंत्र को मजबूत बनाया। अंबेडकर ने जातिवाद के शोषण और शोषितों के दमन को उजागर किया। जन्म के संयोग को चुनौती दी और व्यवस्था में सहभागी होने के लिए समान अधिकार प्राप्त कराए।  कार्ल मार्क्स ने वर्ग संघर्ष की रूपरेखा को तोड़कर सर्वहारा की सत्ता को स्थापित करने का सूत्र दिया। (क्रमशः) बाकी अगली पोस्ट में
लेखिका:
सायली पावसकर रंगकर्मी
pawaskarsayali31@gmail.com
स्टेज के महारथी मंजुल भरद्वाज से सम्पर्क का ईमेल पता है:Manjul Bhardwaj <etftor@gmail.com>

Saturday, July 18, 2020

मंजुल भारद्वाज की कविताओं ने मोड़ा राजनैतिक बहस का रुख!

Sunday: 28th June 2020 at 8:00 PM to medialink32@gmail.com
 सत्ता और पूंजीवादी व्यवस्था नग्न रूप में सामने आ गए हैं  
अन्न के एक एक दाने को मोहताज हो गई देश की श्रमिक जनता-आखिर कौन है ज़िम्मेदार?
मुंबई: (सायली पावसकर रंगकर्मी//हिंदी स्क्रीन)::
कला के ज़रिये क्रांति को समर्पित मंजुल भारदवाज
आपदा मनुष्य को एक नयी पहचान देती है। आज की विकट स्थिति ने समाज, मानव प्रकृति और व्यवस्था के असली चेहरे को उजागर किया है, ऐसी स्थिति आमतौर पर हमारे सामने नहीं आती और यह दुनिया के इतिहास में पहली बार है (कम से कम मेरे जीवन में मैंने इसे पहली बार देखा और अनुभव किया है) जहां सत्ता, संविधान, व्यवस्था, सामाजिक स्थिति, मानवी प्रवृत्ति के विभिन्न पहलू सामने आ रहें हैं।
आज, पूरे विश्व के सामने प्रकृति में हस्तक्षेप के परिणामस्वरूप, 'कोरोना' यह आपदा हमारे सामने है।  इस आपदा ने पूरी दुनिया में एक बड़ी आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक और मनोवैज्ञानिक तबाही का प्रभाव डाला है। यह तबाही बिना किसी भेदभाव के सभी को प्रभावित कर रही है।  जीवन बचाने का संघर्ष सभी का अनवरत जारी है।
उत्पन्न हुई आपदा के कारण समाज में सभी लोग जिम्मेदारी से काम कर रहें हैं।  स्वास्थ्य कर्मी जान बचाने के लिए काम कर रहें हैं। जरूरतमंदों की मदद के लिए सेवार्थी संगठन कार्य कर रहें हैं। लेकिन मौलिक मानवी अधिकारों के लिए कौन लड़ रहा है? जो स्थिति उत्पन्न हुई है, उसकी जड़ में कौन जा रहा है?  उसका निष्पक्ष विश्लेषण कौन कर रहा है?
लेखिका सायली पावसकर रंगकर्मी
किसी आपदा से उभरने के लिए समेकित प्रयास की आवश्यकता है। आज हमारे पास कितना भी धन या विलासिता क्यों न हो, स्वास्थ्य सेवाएं और कल्याणकारी राज्य संस्थाएं बहुमूल्य संसाधन हैं और ऐसी आपदाओं के समय उनकी अपरिहार्यता सिद्ध होती है। आज काल इंसानों पर कहर ढा रहा है, लेकिन इस काल को इंसान ने स्वयं निर्माण किया है।  मानवता को नष्ट करनेवाला यह भूमंडलीकरण का भयावह काल है!
फासीवादी शासन और उनका शासक, लोकतंत्र का भीड़तंत्र में परिवर्तन होना, धार्मिक रंगों के साथ समाज को लगातार विभाजित करती पूंजीवादी दलालों की मीडिया, समाज संवेदनहीन हो रहा है, वहाँ "मानवता" अपनी अंतिम सांसे ले रही है । इन आपदाओं से निपटने के दौरान हमारी व्यवस्था की खामियां हमारे सामने आयी हैं।  अब मुख्य मुद्दा यह है कि क्या इन खामियों को नजरअंदाज किया जाए या उन्हें महत्वपूर्ण बिंदुओं के रूप में प्रस्तुत किया जाए।  इस तरह के और कई मुद्दे सामने आने हैं, लेकिन वे सामने नहीं आ पाते।
ऐसे समय में, कलाकार, रचनाकार, नाटककार और साहित्यकार इनकी विशेष भूमिका है, जहाँ वे अपनी कला को माध्यम बनाते हुए अपने साहित्य रचनाओं के माध्यम से हेतुपूर्ण मौलिक प्रश्न, मौलिक अधिकार और उद्देश्य प्रस्तुत करेंगे। कलासत्व को मानवता के लिए एवं विश्व के सौहार्द के लिए रचनेवाले सृजनकार शाश्वत विचार स्वरूप इस काल से लड़ते हैं । इसी भूमिका के लिए रंगचिंतक मंजुल भारद्वाज प्रतिबद्ध हैं ।
मज़दूरों के साथ हो रहे इस घातक प्रकरण के बारे में सभी को सहानुभूति है । आज के परिस्थिति में भी मज़दूरों के मुद्दे, उनके प्रश्न विकास के जुमलों में फंसे हैं। पहले ही मजदूरों कि यह हालत, उसपर उनके मौलिक अधिकारों का हनन, इससे यह स्पष्ट होता है कि, मजदूरों का इस यंत्रणा में कोई स्थान नहीं।
इस तथ्य से कोई इनकार नहीं करता है कि यह बीमारी ऊपरी और मध्यम वर्गों से शोषित-गरीब वर्गों तक फैल गई है।  फिर भी, गरीब और मजदूर, शोषित और पीड़ित हैं।  कुल मिलाकर, यह स्पष्ट है कि नव-उदारवादी व्यवस्था में, राजनैतिक क्षेत्र और समाज में श्रमिकों के लिए कोई सहवेदना नहीं बची है।  क्योंकि राजनैतिक कोष होने के बावजूद, मजदूर चलने के लिए मजबूर हैं।  भले ही धान के गोदाम भरे पड़े हैं, फिर भी भुखमरी होती है।  यह भूमंडलीकरण का भयावह सच है।
मंजुल भारद्वाज सर के अंदर बेचैनी थी, उनके अंदर का एक हिस्सा जहां विश्वास था, आस्था थी। उन्होंने इस तबाही में संसद, न्यायपालिका, इनके संवेदनहीनता को महसूस किया।  सत्ता और पूंजीवादी व्यवस्था नग्न रूप में सामने आ गए। लॉकडाउन में प्रगतिशील, बुद्धिजीवी, परिवर्तनवादी, मध्यम वर्ग सभी घर में तालेबंद हैं।  लेकिन ये मजदूर जहां मार्ग दिखा, उस दिशा में चल रहें हैं, तेज धूप में भोजन और पानी के बिना।  क्योंकि वे सरकार की शर्तों पर जीने को तैयार नहीं हैं।  वे जानवरों की तरह नहीं रहना चाहते। वे नए तरीके खोज रहें हैं और यह उनका एक सचेत आंदोलन है।  यह नयी, अनोखी, अलग दृष्टि मंजुल जी की कविता से व्यक्त होती है।
जहां मध्यम वर्ग इस बात पर सहमत था कि थाली और ताली पीट कर, दीये जलाकर सब कुछ पहले जैसे हो जाएगा, वहां सरकार मज़दूरों की पहल से हिल गई। मज़दूरों ने सरकार को जवाबदेही के लिए मजबूर किया।
एकांत की परिधि को भेदते हुए यह कवि अपने जीवित होने का अर्थ तलाश रहा है।  वह मानवीय प्रवृत्ति, यथार्थ, संवेदनाओं, पाखंडी सत्ता और मृत्यु का वर्णन अपनी काव्य रचनाओ में उजागर करता है।
  मंजुल भारद्वाज का एक काव्य अंदाज़ देखियेअपने ज़िंदा होने पर शर्मिंदा हूँ !
  आजकल मैं श्मशान में हूँ
  कब्रिस्तान में हूँ
 सरकार का मुखिया हत्यारा है
 सरकार हत्यारी है
 अपने नागरिकों को मार रही है
 सरकारी अमला गिद्ध है
 नोंच रहा है मृत लाशों को
 देश का मुखिया गुफ़ा में छिपा है
 भक्त अभी भी कीर्तन कर रहे हैं
 इस त्रासदी पर
देश की सेना पुष्प वर्षा कर रही है
बैंड बजा रही है
मैं हूँ जलाई और दफनाई
लाशें गिन रहा हूँ
रोज़ ज़िंदा होने की
शर्मिंदगी महसूस कर रहा हूँ
क्या क्या गुमान था
कोई संविधान था
कोई न्याय का मंदिर था
एक संसद थी
कभी एक लोकतंत्र था
आज सभी मर चुके हैं
ज़िंदा है सिर्फ़ मौत !
मज़दूरों के सत्याग्रह ने जीवन संघर्ष की मशाल जलाई। इसने मृत लोकतंत्र को पुनर्जीवित किया।  आज, उन्होंने अपनी विवशता को अपना हथियार बना लिया है, मौत से लड़ रहें हैं। जीने के लिए, मानवता को जिंदा रखने के लिए! क्रमशः बाकी अगली पोस्ट में
लेखिका:
सायली पावसकर रंगकर्मी
pawaskarsayali31@gmail.com
स्टेज के महारथी मंजुल भरद्वाज से सम्पर्क का ईमेल पता है:Manjul Bhardwaj <etftor@gmail.com> 

Tuesday, July 14, 2020

कलापीठ की ओर से फ़िरोज़पुर में दो हिंदी बाल पुस्तकों का विमोचन

Tuesday: 14th July 2020 at 17:58 Messenger  
शायर अनिल आदम ने सम्पादित की हैं दोनों हिंदी बाल पुस्तकें 
फ़िरोज़पुर14 जुलाई 2020: (हिंदी स्क्रीन ब्यूरो)::
जब पंजाब में गोली की भाषा बोली जा रही थी। हर तरफ सहम था। दहशत सी छै हुई थी। कलमकार भी बंट गए थे। कोई हिन्दू बन गया था तो कोई सिख। कोई सरकारी बन गया था तो कोई बागी। उस समय भी कलापीठ नामक संस्था इस बात पर ज़ोर देती रही कि कलमकार केवल कलमकार ही रहे। वह सच बोलने वाला ही रहे। वह सियासत, जाती-पाति, धर्मों और मज़हबों से ऊपर उठ कर केवल इंसान ही रहे। कलापीठ ने इसी तरह का संदेश देते आयोजन उन दिनों भी करवाए जब बोलना बेहद मुश्किल हो गए था। नफरत और अंधी हिंसा के उस दौर में भी कलापीठ ने शब्दों के ज़रिए लोगों के दिलों में प्रेम के दीप जलाये। अंधेरों के खिलाफ अपने शब्दों को रौशनी फैलाकर सत्य को बुलंद किया। एक नया इतिहास रचा उन दिनों कलापीठ ने। 
अब जबकि कोरोना का कहर बढ़ता ही जा रहा है तो इस नाज़ुक समय में भी कलापीठ सक्रिय है हमेशां की तरह। शब्द संस्कृति को फ़ैलाने और उत्साहित करने के लिए भी कलापीठ निरंतर काम कर  रही है। कोरोना के चलते सरकार की तरफ से जारी स्वास्थ्य सावधानी के दिशा निर्देशों का पालन करते हुए कलापीठ के साहित्यिक आयोजन जारी हैं। सोशल डिस्टेंसिंग का भी बाकायदा ध्यान रखा जाता है और अन्य ज़रूरी बातों का भी।  
बहुत ही सादगी से हुए ऐसे ही एक आयोजन में दो हिंदी पुस्तकों का विमोचन हुआ। "संगीतकार गधा" और "घमंड का सिर नीचा" नामक इन पुस्तकों को सम्पादित किया है जानेमाने शायर अनिल आदम ने। 
इस मौके पर कार्यक्रम के प्रधानगी मंडल में शामिल रहे प्रिंसिपल दिनेश, प्रोफेसर गुरतेज कोहारवाला, प्रोफेसर जसपाल घई, प्रोफेसर कुलदीप और अनिल आदम। 
प्रोफेसर जसपाल घई ने शायर अनिल आदम की शख्सियत और उसकी रचना पर जानकारी दी। उसके रचनात्मक अंदाज़ और साधना की भी चर्चा की। सुखजिंदर फ़िरोज़पुर ने बाल साहित्य के इतिहास प्रसंग को आज के संदर्भ में जोड़कर प्रस्तुत किया और इसे मौजूदा समय की एक प्रमुख आवश्यकता भी कहा। प्रोफेसर गुरतेज कोहारवाला ने बाल साहित्य के क्षेत्र में अनिल आदम के आने को बहुत ही शुभ बताया। प्रिंसिपल दिनेश ने ही अनिल आदम और कलापीठ के परसों की प्रशंसा की। 
मंच संचालक की ज़िम्मेदारी निभाते हुए हरमीत विद्धार्थी ने कालेज प्रबंधन, प्रिन्सिपलौर स्टाफ को धन्यवाद कहा। साथ ही अनिल आदम को अपनी इस नई उपलब्धि पर बधाई भी दी। इस अवसर पर प्रोफेसर कुलदीप, राजीव ख्याल, कपिल देव, डाक्टर अमनदीप सिंह, डाक्टर जीत पाल, यादविंदर सिंह, इक़बाल सिंह और अन्य लोग भी शामिल हुए। (डेस्क इनपुट:कार्तिका सिंह)

Friday, July 10, 2020

बेटी जैसा और कहां कौन!

 रिश्ते बड़े अनमोल होते हैं....बंधन अच्छे लगते हैं 
बेटियां जैसा कोई और कहां! इस अनमोल रिश्ते पर, इस दिव्य सम्बन्ध पर जितना भी लिखा जा सके कम है। आज के इस स्वार्थपूर्ण युग में बेटियों ने ही साबित किया है कि उन्हें बस मां बाप की कुशलता चाहिए और कुछ नहीं। बेटे तो हत्याएं भी कर रहे हैं और मां बाप को घरों से निकाल भी रहे हैं। ऐसी जघन्य स्थिति में बेटियां  किसी देवी की तरह ही लग रही हैं।  यहां दी जा रही सामग्री हमें किसी वाटसप ग्रुप पर मिली है। यदि आप के पास भी कोई इस तरह की सामग्री हो तो आप हमें अवश्य भेजें। -सम्पादकीय डेस्क
पिता और पुत्री की इस शानदार तस्वीर को क्लिक किया Katie E (Pexels) ने 
*बिटिया बड़ी हो गयी, एक रोज उसने बड़े सहज भाव में अपने पिता से पूछा - "पापा, क्या मैंने आपको कभी रुलाया*" ?
पिता ने कहा -"हाँ "
उसने बड़े आश्चर्य से पूछा - "कब" ?
पिता ने बताया - 'उस समय तुम करीब एक साल की थीं,
घुटनों पर सरकती थीं।
 मैंने तुम्हारे सामने पैसे, पेन और खिलौना रख दिया क्योंकि मैं ये देखना चाहता था कि, तुम तीनों में से किसे उठाती हो तुम्हारा चुनाव मुझे बताता कि, बड़ी होकर तुम किसे अधिक महत्व देतीं।
जैसे पैसे मतलब संपत्ति, पेन मतलब बुद्धि और खिलौना मतलब आनंद।

मैंने ये सब बहुत सहजता से लेकिन उत्सुकतावश किया था क्योंकि मुझे सिर्फ तुम्हारा चुनाव देखना था।

 तुम एक जगह स्थिर बैठीं टुकुर टुकुर उन तीनों वस्तुओं को देख रहीं थीं।
 मैं तुम्हारे सामने उन वस्तुओं की दूसरी ओर खामोश बैठा बस तुम्हें ही देख रहा था।
तुम घुटनों और हाथों के बल सरकती आगे बढ़ीं,
मैं अपनी श्वांस रोके तुम्हें ही देख रहा था और क्षण भर में ही तुमने तीनों वस्तुओं को आजू बाजू सरका दिया और उन्हें पार करती हुई आकर सीधे मेरी गोद में बैठ गयीं।
मुझे ध्यान ही नहीं रहा कि, उन तीनों वस्तुओं के अलावा तुम्हारा एक चुनाव मैं भी तो हो सकता था।
 तभी तुम्हारा  भाई आया ओर पैसे उठाकर चला गया,

वो पहली और आखिरी बार था बेटा जब, तुमने मुझे रुलाया और बहुत रुलाया...

भगवान की दी हुई सबसे अनमोल धरोहर है बेटी...

क्या खूब लिखा है एक पिता ने...

हमें तो सुख मे साथी चाहिये दुख मे तो हमारी बेटी अकेली ही काफी है... रिश्ते बड़े अनमोल
होते हैं....बंधन अच्छे लगते हैं...अपनो से।

सुप्रभात जी। जय श्री कृष्ण।

आप भी बेटिओं के सम्मान में कोई कमी न आने दें। बेटियां अनमोल हैं। उन्हें इसी भावना से मिला करें। 

Wednesday, July 1, 2020

जानीमानी शायरा इरादीप त्रेहन से बात करने का सुनहरी अवसर

 पहली जुलाई को फेसबुक पर आमने सामने रात्रि 9 बजे 
फाईल फोटो
लुधियाना: 30 जून 2020: (रेक्टर कथूरिया//हिंदी स्क्रीन)::
जब हालात दमनपूर्ण हो। साम्प्रदायिकता हर तरफ छुपी नज़र आने लगे। विचारधारक  विरोध को हिंसा के सहारे दबाने की बात आम होने लगे तो सच कहना बहुत ही कठिन हो जाता है। कहना तो दूर की बात सच को सोचते वक़्त भी मन  कंपकंपी सी छिड़ने लगती है। ऐसे में भी बहुत ही सलीके से सच कह पाना कितना कठिन होता होगा इसका अनुमान आप सहज ही लगा सकते हैं। 
आज यहां यह ज़िक्र किया  रहा है जानीमानी शायरा और शिक्षाविद इरादीप त्रेहन की काव्य रचना को लेकर। एक राजकीय कालेज में इकोनॉमिक्स का अध्यापन और साथ में कविता रचना। कई बार बहुत ही हैरानी भी होती है। कितना कठिन होता होगा इकोनॉमिक्स और कविता के दरम्यान समंजस्य बैठाना।
तकरीबन हर आयोजन में मैंने इरादीप को पूरी तरह सहज देखा। मंच संचालन करते हुए भी,  सभी शायर लोगों को उत्साहित करते हुए भी और साथ ही साथ इशारो इशारों में चाय-पानी और समोसों के प्रबंध पर नज़र रखते हुए भी। कविता को वशिष्ठ सभाओं और गिनेचुने लोगों के आयोजनों से निकाल कर आम जन जन तक ले जाने में बहुत योगदान दिया है।  
युवा वर्ग के शायरों को नामी ग्रामी मंचों तक लेजाने में भी सक्रिय रहती हैं इरादीप त्रेहन। उनकी सुनंने और उनसे बात करने का एक यादगारी और सुनेहरा अवसर आ रहा है पहली जुलाई को। 
पहली जुलाई 2020 को रात्रि 9 बजे इरादीप त्रेहन साहिबा को राष्ट्रीय कवि संगम की पंजाब इकाई  लाईव कर रही है। इसमें लाईव होने के सम्पर्क कर सकते हैं मोबाईल फोन नंबर:98728 88174 और 80549 31143 पर। फेस टू फेस आमने सामने लोकप्रिय शायरा इरादीप त्रेहन से सवाल पूछने का सुअवसर हमेशां के लिए संजो लीजिये।