Sunday, November 25, 2012

दीपावली व धनतेरस पर खरीदी जाती हैं लडकियां भी!

एक कदम आगे, दो कदम पीछे
Posted On November - 25 - 2012
वीना सुखीजा
चित्रांकन : संदीप जोशी
भरतपुर पुलिस ने बीती 12 नवम्बर को लुधियाना के एक गांव में दबिश डालते हुए दो ‘दलालों’ सुप्रिया कुमार व मुकेश उपाध्याय को गिरफ्तार किया। पुलिस ने उनके पास से तीन लड़कियों को बरामद किया। इन लड़कियों को मध्य प्रदेश के जबलपुर से भरतपुर में एक धार्मिक मेला दिखाने के बहाने लाया गया था। लेकिन बाद में उन्हें यह कहते हुए ‘बंदी’ बनाकर रखा गया कि उन्हें जल्द उनकी ससुराल भेजा जाएगा। इन लड़कियों को जबलपुर से लक्ष्मण  नामक व्यक्ति बहला-फुसलाकर लाया था  और उसने ही इन्हें ‘दलालों’ को बेचा था।
लेकिन यह मानव तस्करी की कोई असाधारण घटना नहीं है। यह उस भयावह परंपरा का हिस्सा है जिसमें महिलाओं के साथ जानवरों से भी बदतर सलूक किया जाता है। दीपावली व धनतेरस पर लोग देशभर में सोना व चांदी खरीदते हैं, लेकिन राजस्थान के मेवात क्षेत्र में इस अवसर पर लड़कियां ‘खरीदी’ जाती हैं, खासकर कि भरतपुर, अलवर व धौलपुर जिलों की ‘मंडियों’ में। दीपावली या उससे पहले खरीदी गई इन लड़कियों को ‘देव उठनी एकादशी’ पर ऐसे पुरुषों के साथ ‘ब्याह’ दिया जाता है जो इनसे आयु में बहुत अधिक बड़े होते हैं।
इस घटना से जाहिर होता है कि दुनिया जहां एक कदम आगे बढ़ रही है वहीं कम से कम महिलाओं के सिलसिले में दो कदम पीछे हट रही है। अब यह खबर किसी से छुपी नहीं रही है कि 31 वर्षीय भारतीय महिला सविता हलपन्नावर को मिसकैरिज के बावजूद कैथोलिक देश आयरलैंड में गर्भपात से इनकार कर दिया गया क्योंकि 21वीं शताब्दी में भी हजारों वर्ष पुरानी धार्मिक परंपराओं को जीवन के अधिकार पर वरीयता दी गई और नतीजे में सविता की मौत हो गई। सविता को बचाया जा सकता था लेकिन उसके उपचार में लगे डॉक्टरों में दकियानूसी नियमों के खिलाफ जाने का साहस नहीं था। यह घटना इतनी शर्मनाक व त्रासदीपूर्ण थी कि जिन डॉक्टरों को शपथ दिलाई जाती है कि वह बीमार का उपचार करने में कोई कसर नहीं छोड़ेंगे, उन्होंने ही धर्म व दकियानूसी कानून का सहारा लिया और सविता को मरने दिया।
सविता अकेली ऐसी महिला नहीं है जो त्रासदीपूर्ण नतीजों का सामना करने के लिए इसलिए मजबूर की गई कि वह महिला है। मलाला यूसुफ जई के साथ हुई घटना से भी अब पूरा संसार परिचित है। पाकिस्तान में इस 14 वर्षीय लड़की को तालिबान ने कत्ल करने का प्रयास किया था। उसका दोष सिर्फ इतना था कि वह अपने आपको व अन्य लड़कियों को शिक्षित करना चाहती थी।
इससे स्पष्ट हो जाता है कि महिलाओं को अगर जान का खतरा होने पर भी गर्भपात का अधिकार नहीं है तो उन्हें शिक्षा का भी कोई अधिकार नहीं है।
संसार में परिवर्तन को छोड़कर कोई चीज स्थायी नहीं है। परिवर्तन को ही विज्ञान की भाषा में क्रमविकास कहते हैं। आज जब आधुनिक संसार तकनीकी प्रगति पर गर्व करते हुए यह बताना नहीं भूलता कि निकट भविष्य में बिना वीर्य (स्पर्म) व पुरुषों को भी बच्चे पैदा करना सम्भव हो जाएगा वहीं यह भी कड़वा सच है कि इस तकनीकी प्रगति के चेहरे पर सामाजिक प्रतीप-गमन (रिग्रेशन) कलंक बना हुआ है, चाहे वह महिलाओं व बच्चों के खिलाफ दिल दहलाने वाली हिंसक अपराधों के रूप में हो या बदजुबानी के रूप में सामने आए।
क्या इसे प्रगति कहा जा सकता है कि एक 20 दिन की बच्ची जिसका अभी नामकरण भी नहीं हुआ है, को मात्र 100 रुपये में बेच दिया जाता है और उसे भीख मांगने के औजार के रूप में प्रयोग किया जाता है। चेन्नै की यह घटना भी शायद अखबारों में न आ पाती अगर एक महिला सब इंसपेक्टर सतर्कता न बरतती। मूलाकड्डाई की मुन्नीअम्मल की मुलाकात इस बच्ची की मां सेलवी से बीती 12 नवम्बर को गवर्नमेंट स्टेनले हास्पिटल में हुई। 30 वर्षीय सेलवी विधवा है और यह बच्ची इसके दूसरे पुरुष से सम्बंध स्थापित करने के कारण वजूद में आई। मुन्नीअम्मल अस्पताल में अपने किसी रिश्तेदार को देखने के लिए गई थी कि उसकी नजर सेलवी की बच्ची पर पड़ी। सेलवी ने व्यथा कथा मुन्नीअम्मल को सुनाते हुए बच्ची को बेचने के इरादे से एक हजार रुपये मांगे, लेकिन मुन्नीअम्मल ने मात्र 100 रुपये देकर बच्ची को खरीद लिया।
बच्चे निश्चित रूप से हमारे देश का भविष्य हैं इसलिए उन्हें सम्पूर्ण विकास के लिए तमाम सुविधाएं मिलनी चाहिए, जिनमें खेलने के लिए पार्क व मैदान भी शामिल हैं। लेकिन स्थिति यह हो गई है कि सार्वजनिक स्थल जैसे पार्क, बस स्टॉप, सड़कें व चौराहे बच्चों के लिए खतरनाक स्थान बनते जा रहे हैं। बच्चों के लिए समय कितना खतरनाक हो गया है इसका अंदाजा अनेक चिन्हों से लगाया जा सकता है, जिनमें से एक यह है कि पैरेंट्स पब्लिक पार्क की तुलना में मॉल के नियंत्रित क्षेत्र को अपने बच्चों के लिए अधिक सुरक्षित जगह मानते हैं। ‘अर्ली चाइल्ड हुड एसोसिएशन’ का मानना है कि सार्वजनिक स्थल बच्चों के लिए सुरक्षित नही हैं, आप यह अंदाजा कर ही नहीं सकते कि कब कोई बुरी नीयत वाला वयस्क आपके बच्चे की तरफ कदम बढ़ा दे। हद तो यह है कि धार्मिक स्थल भी अपराधियों के अड्डे बन गए हैं। चूंकि साहित्य अपने दौर का आइना होता है, इसलिए आज का शायर कहता है :-
माहौल के ज़हर से जो लोग  वाकिफ हैं,
अपने बच्चों को घर से निकलने नहीं देते।

बहरहाल, खतरा सिर्फ बच्चों के लिए ही नहीं है बल्कि महिलाओं ने भी सुबह व शाम को अपनी सहेलियों के साथ वॉक पर निकलना बंद कर दिया है। अब तो बंगाल के लोक (पुरुष) भी भद्र (विनीत, सभ्य) नहीं रहे हैं, जैसा कि पश्चिम बंगाल में महिलाओं के खिलाफ बढ़ते अपराधों से स्पष्ट है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार बंगाल में बलात्कार की घटनाओं में पिछले एक साल के दौरान 60 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, जो कि राष्ट्रीय वृद्धि (33 प्रतिशत) से लगभग दोगुनी है। मध्य प्रदेश के बाद पश्चिम बंगाल में बलात्कार (29133) की सबसे ज्यादा घटनाएं हुई हैं। इसी प्रकार बंगाल में महिलाओं से छेड़छाड़ की घटनाओं में 52 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, यह भी इस संदर्भ में अखिल भारतीय वृद्धि (24 प्रतिशत) से दोगुनी से भी अधिक है।
हद तो यह है कि बंगाल की महिलाएं न सिर्फ घर के बाहर बल्कि घर के अन्दर भी असुरक्षित हैं। इस राज्य में नवविवाहित महिलाओं पर ससुराल में की गई ज्यादतियों की पिछले एक साल में 19722 घटनाएं रिकार्ड की गई हैं, जबकि घरेलू हिंसा की वारदातें बंगाल में अन्य राज्यों की तुलना में सबसे ज्यादा होती हैं। महिला संगठनों का कहना है कि ये आंकड़े पूरी तरह से सही नहीं हैं क्योंकि बलात्कार, छेड़छाड़, उत्पीडऩ आदि की बहुत सी घटनाओं को तो रिकार्ड ही नहीं किया जाता है।
लेकिन अकेले बंगाल को ही दोष क्यों दिया जाए। देश में हर जगह यही हाल देखने को मिल रहा है। एक समय में मुंबई को महिलाओं के लिए सबसे सुरक्षित जगह समझा जाता था कि अकेली महिला भी वहां बिना किसी डर के रह सकती थी। लेकिन अब इस महानगर में भी हाल यह है कि एक स्पेनी छात्रा से बांद्रा जैसे पॉश इलाके के फ्लैट में बलात्कार किया गया, बुजुर्ग विधवा की उसके घर में हत्या कर दी गई व एक नाबालिग पर सेक्सुअल हमला किया गया।  पिछले महीने (अक्तूबर) हरियाणा में सामूहिक बलात्कार की 19 घटनाएं हुईं, जिनमें एक पीडि़त बच्ची तो मात्र 13 वर्ष की थी। जबकि बेंग्लुरू के सम्मानित नेशनल लॉ स्कूल के कैंपस में एक 22 वर्षीय महिला को सामूहिक बलात्कार का शिकार बनाया गया। जब इस महिला ने हमले का विरोध किया तो उसकी गर्दन काट दी गई।
लेकिन इन दर्दनाक घटनाओं से भी अफसोसनाक बात यह है कि महिलाओं के खिलाफ इस हिंसा को राजनीतिक रंग देने का प्रयास किया गया या पीडि़त पर ही सारे इल्जाम लगा दिए। मसलन, हरियाणा में जब दलित महिलाओं को सामूहिक बलात्कार का शिकार बनाया जा रहा था तो एक नेता ने कहा कि 90 प्रतिशत ‘बलात्कार’ आपसी सहमति से होते हैं। हरियाणा सरकार की एक मंत्री ने इन वारदातों को ‘राज्य सरकार के खिलाफ साजिश’ बताया। खाप पंचायतों ने बलात्कार के लिए फास्ट फूड को दोषी ठहराया। खाप पंचायतों ने यह भी कहा कि बलात्कार की घटनाओं को रोकने के लिए विवाह की न्यूनतम आयु को कम कर देना चाहिए।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि महिलाओं के खिलाफ हिंसक अपराध निरंतर बढ़ते जा रहे हैं।
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार 2001 में देश में बलात्कार की घटनाएं 16075 हुई थीं जो 2011 में बढ़कर 24206 हो गईं। इसी तरह 2001 में 14545 महिलाओं का अपहरण किया गया जबकि 2011 में यह आंकड़ा बढ़कर 35565 हो गया। जहां तक महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा की बात है तो 2001 में 49170 महिलाएं अपने पति की क्रूरता का शिकार हुई थीं, जबकि 2011 में यह संख्या बढ़कर 99135 हो गई। 2001 में 6851 दहेज हत्याएं हुई थीं जो 2011 में बढ़कर 8618 हो गईं।
एक समय था जब हम अपने आप से सवाल किया करते थे कि महिलाओं के खिलाफ अपराधों में वास्तव में इजाफा हो रहा है या मीडिया के विस्तार के कारण इस किस्म की खबरों को हम ज्यादा सुन रहे हैं? लेकिन अब हम अपने आपको धोखा नहीं दे सकते; क्योंकि महिलाओं के विरुद्ध हर किस्म की हिंसा में तेजी आई है। कहा यह जा रहा है कि चूंकि जॉब्स की कमी है और महिलाएं प्रतिस्पर्धा में शामिल हो रही हैं, इसलिए उन्हें भेदभाव व हिंसा का सामना तो करना ही पड़ेगा।
सशक्तीकरण का सच

लगभग सभी राजनीतिक पार्टियों के नेताओं के मुंह से महिलाओं के खिलाफ अपमानजनक शब्दों को इन दिनों सुना जा सकता है। महिला संगठनों ने इसका विरोध किया है लेकिन बाकी किसी को इसकी परवाह नहीं है। संसद में नियमित छोटी-छोटी बातों पर गर्मागर्म बहस होती है व रोजाना ही कोई न कोई समूह यह प्रदर्शन करता है कि उसकी भावनाओं को ठेस पहुंची है। लेकिन महिलाओं की भावनाओं को तो हर पल ठेस पहुंचती रहती है, उनका अपमान किया जाता है, गाली दी जाती है व उनके खिलाफ हिंसा की जाती है।
इस बारे में कहीं कुछ नहीं होता, सिवाय इसके कि कुछ महिला संगठन विरोध प्रदर्शन कर देते हैं व इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर आधे घंटे की बहस छेड़ दी जाती है। कभी न इस पर सवाल होता है और न ही हल करने का प्रयास किया जाता है कि 2011 में देश की विभिन्न अदालतों में 95065 बलात्कार के मामले ट्रायल के स्तर पर थे जिनमें से मात्र 26 प्रतिशत पर ही फैसला हुआ । इसी तरह से घरेलू हिंसा के 3.4 लाख मामले व महिला अपहरण के 71078 मामले अदालतों में लंबित पड़े हैं। यौन-उत्पीडऩ (25099) व दहेज (29669) के मामले भी लंबित हैं। आप हैरत करेंगे कि सुप्रीम कोर्ट ने 1994 में दिशा-निर्देश जारी किए थे कि बलात्कार पीडि़तों को आर्थिक मुआवजा दिया जाए, लेकिन इस पर योजना बनाने के लिए राष्ट्रीय महिला आयोग को 10 साल का समय लगा।
एक रिपोर्ट के आधार पर न सिर्फ विकसित देशों ने बल्कि पड़ोसी श्रीलंका जैसे अनेक विकासशील देशों ने प्लान बना लिया है, लेकिन अफसोस की बात यह है कि अपने देश में अब तक ऐसा नहीं हुआ है।
कुछ देशों में महिलाओं के खिलाफ हिंसा पर विराम लगाने के लिए जो तरीके अपनाए गए हैं उनको अपने देश में भी लागू करना लाभकारी हो सकता है। मसलन, ऑस्ट्रेलिया में पुरुषों, विशेषकर सांसदों व सामुदायिक नेताओं को प्रेरित किया जाता है कि वह महिलाओं के खिलाफ हिंसा के विरुद्ध बोलें। तुर्की में नवविवाहित जोड़ों को घरेलू हिंसा कानूनों व प्रजनन स्वास्थ्य के बारे में जानकारी दी जाती है। इस प्रकार के विशिष्ट दृष्टिकोण महिलाओं के खिलाफ हिंसा में कमी ला सकते हैं, लेकिन क्या महिला आरक्षण विधेयक का विरोध करने वाले हमारे नेता ऐसे प्लान को बनाने के लिए तैयार हैं? (दैनिक ट्रिब्यून से साभार)

दीपावली व धनतेरस पर खरीदी जाती हैं भी!

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