Wednesday, February 16, 2022

नहीं रहे बेनू परवाज़ के माता अजीत कौर जी

कुछ दिनों से बीमार चल रहे थे लुधियाना में हुआ निधन 

लुधियाना: 16 फरवरी 2022: (रेक्टर कथूरिया//हिंदी स्क्रीन)::

कुछ लोग दुःख से टूट जाते हैं। कुछ बहादुर लोग  टुकड़ों को फिर से उठा क्र जोड़ लेते हैं और चल पड़ते हैं नए जोश के साथ  पर। जब प्रोफेसर सतीश कांत का अचानक निधन हो गया तो उनके परिवार के लिए सब कुछ टूट गया। सभी सपने बिखर गए। जो अपने थे उनके पास पहले से ही उनके अपने झमेले थे। जो अपने नहीं हैं वे भी या तो हालत का फायदा उठग्ने लगते हैं या फिर औपचारिक अफ़सोस व्यक्त करने के बाद लौट जाते हैं अपनी अपनी दुनिया में। कौन किसका दुःख बंटा पाता और सा ही दुःख बंटाने की बात सम्भव भी नहीं होती। सती प्रथा को मानने वाली महिलाएं तो आग में जल कर रख हो जाती रहीं लेकिन इस आग से ज़्यादा पीड़ादायक होती है बिरहा की आग। उसमें जीवन भर एक एक सांस सती होते रहना होता है। इसके साथ ही घर परिवार और दुनिया की रस्में भी निभानी होती हैं। सभी ज़िम्मेदारियां भी उठानी होती हैं। इस धर्मयुद्ध से भागने की सिफारिश न  न ही समाज। परिवार, समाज और स्वयं की ज़िम्मेदारियों से भाग कर की गई पूजा भी स्वीकारयोग्य नहीं होती। 

प्रोफेसर सतीश कांत का निधन होने के बाद यह सभी चुनौतियां मैडम बेनु के सामने थी। पति चल बसे तो सती जैसी प्रथाएं शुरू करने और चलाए रखने वाला समाज पत्नी का मुस्कराना भी ठीक नहीं समझता। ढंग से कपड़ा पहन ले तो उसे दूसरी ही निगाहों से देखने लगता है। लेकिन ज़िंदगी की जंग में मुस्कराना भी पड़ता है और ढंग के कपड़े भी पहनने पड़ते हैं। 
बेनू मैडम के पिता बहुत ही प्रगतिशील थे। उन पर वाम के विचारों का काफी असर था। एक तरह से कामरेडों वाली लुक थी इस परिवार की। पीटीआई का साथ छूटा तो उन्हें पिता भी बहुत याद आए लेकिन वह भी तो पास नहीं न थे। 
इस दूरी के बावजूद पिता के अपनाए  विचारों ने बेनू मैडम और उनके परिवार को शक्ति दी कि समाज से डर कर नहीं बल्कि उन्हीं सिद्धांतों को अपना कर चला जाता है जो पूरे समाज का भला करने वाले हों। 
उस बेहद नाज़ुक माहौल में जिसने स्नेह और मातृत्व के साथ आगे बढ़ने की शक्ति दी वह बेनू की मां थी। हम से कुछ लोगों ने उस महान शख्सियत माता अजीत कौर जी के दर्शन भी किए हुए हैं। उस महान माता ने बेनू को हौंसला दिया। पूरी हिम्मत से काम करने के लिए ढांढ़स बंधाई। समाज आड़े आया तो बेनू की माता जी ने पूरे समाज के साथ टक्कर  ले कर उसे अपने साथ चलने पर मजबूर किया। बेनू को साहित्य सृजना के लिए उत्साहित किया। 
बेनू को टूटने से बचाने वाली वह महान शख्सियत अब इस दुनिया में नहीं रही। इस महीने की 15 फरवरी को उनका निधन हो गया। वह कुछ दिन से बीमार तो चल रहे थे लेकिन ऐसी आशंका तो कदापि भी नहीं थी। शायद यही होती है अनहोनी। जो हम सोचना भी नहीं चाहते वही हो कर रहता है। वह बेनू और परिवार को छोड़ कर चली गयीं उस सफर पर जहां से कोई नहीं लौटता। दुःखद मन से उन्हें सिविल लाईन्ज़ के श्मशान घाट में अंतिम दर्शनों के बाद विदा कर दिया गया। चिता की अग्नि के साथ ही ज्योति के साथ ज्योति मिल गई। अब यादें शेष हैं। उनके दिए आशीर्वाद शेष हैं। उनकी बातें अब भी कानों में सुनाई देती रहेंगी। जहां जहां वह उठते बैठते थे वहां वहां से उनके होने का भरम होता रहेगा।  उन्हें खोने के बाद उनकी अहमियत हर पल बढ़ती रहेगी। हम सोचते रहेंगे काश आज फिर वह हमारे पास होते लेकिन कौन आया है उस जहां से लौट कर। वह अदृश्य हो गई हैं लेकिन वह हमारे आपस ही तो हैं। बस अब नज़र नहीं आएंगी। 

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