Friday, September 14, 2018

भाषा को सियासत का हथियार बनने से बचाना होगा

तभी कायम हो सकेगा हिंदी और अन्य भाषाओं का आपसी सौहार्द 
लुधियाना: 14  सितंबर 2018:( हिंदी स्क्रीन टीम)::
करीब तीन-चार वर्ष पूर्व जब किसी एक सप्ताह लम्बे आयोजन में भाग लेने के लिए मैं कोयम्बतूर (तमिलनाडू) गया तो भाषा के मामले में मेरे अनुभव काफी नए थे। मुझे लगता था की दश्कों के बाद हिंदी से नफरत केवल कम ही नहीं होगी बल्कि शायद प्रेम में भी तब्दील हो गयी होगी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं था। मैंने किसी रेहड़ीवाले से हिंदी में बात करने की कोशिश की तो वो मेरे साथ झगड़ने की सुर में बोला... नो हिंदी नो हिंदी। ओनली तमिल ऑर इंग्लिश। उसके परिवार की एक महिला--शायद उसकी पत्नी ने हिंदी बोल कर मेरी सहायता करनी चाही तो उसने उसे भी डांट दिया। वह भी चुप हो गयी। फिर मैंने वहां पहुंची किसी लाल झंडे वाली वाम महिला से सहायता चाही वह उत्तर भारत से वहां गयी लगती थी; शायद हिमाचल प्रदेश से। 
इसके बाद मेरी बात करने की मुश्किल आसान हुई। लेकिन इसके साथ ही मन में पैदा हुए कई सवाल। भाषा तो जोडती है फिर इसके नाम पर विवाद क्यूँ? सोच के सागर में डुबकी कुछ और गहरी हुई तो याद आया कैसे पंजाब के  टुकड़े भाषा के नाम पर ही किये गए थे। भाषा, साहित्य, संस्कृति, धर्म और कला जैसे गैर सियासी क्षेत्रों में सियासत की दखलंदाजी कुछ कुछ समझ में आने लगी। सत्ता लोलुप लोग क्या क्या कर सकते हैं यह भी दिखने लगा। अब 14 सितम्बर को हिंदी दिवस के अवसर ऐसा बहुत कुछ याद आने लगा है। जब पंजाब के पंजाबी भाषी लोगों ने सियासी आदेशों के चलते अपनी भाषा पंजाबी की बजाये हिंदी लिखवाई थी। इसी गलतबयानी से शुरू हुई थी पंजाब की समस्या जो बाद  में विकराल बनी। 
साथ ही यह भी याद आया कि तमिलनाडू में हिंदी का विरोध 1937 से चला आ रहा है। वर्ष 1960 के दशक में जब यह आंदोलन और भड़का तो 65-66 में 25 जनवरी के दिन काले झंडे लहराए गए। मदुरई में आंदोलन हिंसक हो उठा। स्थानीय कांग्रेस कार्यालय के बाहर आठ लोगों को जिंदा जला दिया गया। यह हिंसक विरोध कम से कम दो सप्ताह तक चला।  अधिकारिक सूत्रों के मुताबिक 70 लोगों की जान गयी। अनुमान लगा कर देखें भाषा के नाम पर खूनखराबा किस ने किया कराया होगा? काम से काम भाषा प्रेमी तो नहीं करेंगे हाँ सियासतदान ऐसा माहौल बना सकते हैं। 
हालात बेहद नाज़ुक थे। यहां तक कि पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री बीसी रॉय भी हिंदी थोपे जाने के सख्त ख़िलाफ़ थे। यह थोपे जाने की आशंका और भावना ही बवाल का कारण बनी होगी। दक्षिण भारत के सभी राज्य भी इसके विरोध में खुल कर खड़े थे। केवल इतना ही नहीं विरोध करने वालों में दक्षिण के कांग्रेस शासित राज्य भी थे। नेहरू और शास्त्री का ज़माना था। कहीं जनसंघ का होता तो शायद बात ही और बनी होती। 
हालात निरतंर बिगड़ते रहे। विरोध प्रदर्शनों के परिणाम स्वरूप उस वक्त के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और लाल बहादुर शास्त्री को आश्वासन देना पड़ा। उन आश्वासनों को तत्कालीन सूचना और प्रसारणमंत्री इंदिरा गांधी ने राजभाषा अधिनियम में संशोधन के जरिए अंग्रेज़ी को सहायक राज भाषा का दर्जा देकर अमल में लाया। इससे कुछ शांति बहाल हुई। लेकिन कड़ुवाहट अभी तक काम नहीं हुई। 
इन हालातों पर टिप्पणी करते हुए मद्रास इंस्टीट्यूट ऑफ़ डेवलपमेंटल स्टडीज़ के पूर्व निदेशक वीके नटराज ने कभी कहा था कि विरोध प्रदर्शनों के बिना हिंदी को संरक्षण देने वाले लोग मज़बूत हो जाते।  गौरतलब है की तमिल अपनी भाषाई पहचान को अन्य लोगों की तुलना में अधिक गंभीरता से लेते हैं। उनको इस बात का अहसास है कि भाषा को खत्म करके पूरी संस्कृति को ही समाप्त किया जा सकता है। ऐसा कई जगहों पर हो भी चुका है शायद। अब उन जगहों के लोगों का मूल स्वरूप ही बदल गया है। 
इसी तरह एरा सेज़ियान कहते हैं  कि हालात अन्य जगहों पर भी ठीक नहीं हैं। अब उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्य भी अंग्रेज़ी सीखने को प्रोत्साहन दे रहे हैं। अब हालात पूरी तरह से बदल गए हैं। राज्य पहले से अधिक मजबूत हुए हैं और केंद्र अब पहले की तरह ताकतवर नहीं रहा। ऐसे में अंग्रेजी भाषा और कल्चर सभी क्षेत्रों में निरंतर बढ़ता ही जा रहा है। 
कुछ ही समय पूर्व पंजाब में भी हिंदी को पंजाबी पर हमला समझा गया था। पंजाबी को दूसरे दर्जे की भाषा समझे/बनाये जाने के जवाब में सड़कों पर लिखे साईन बोर्डों से हिंदी पर कालिख पोत दी गयी थी। अगर हिंदी को हमलावर माना जाता रहा या बनाया जाता रहा तो भाषा का सौहार्द खतरे में है। पंजाब के जिन लेखकों ने हिंदी-पंजाबी दोनों में साहित्य रचा है उनका शुद्ध स्नेह खतरे में है। भाषा को सियासत का हथियार बनने से बचाना होगा। 

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