Saturday, May 23, 2020

दाम्पत्य जीवन का आधार

अपनी खुशी त्यागना ही शादी का असल अर्थ 

लुधियाना: 23 मई 2020: (*रुबिता अरोड़ा)::

लेखिका: रुबिता अरोड़ा
पति पत्नी सुख दुःख के साथी होते है। यह एक ऐसा रिश्ता होता है जिसमें प्यार, अपनापन, विश्वास, त्याग, समर्पण हो तो जिंदगी जन्नत लगती हैं। यही एक ऐसा रिश्ता है जो जन्म से नहीं जुडते पर अन्त तक साथ रहता है। कुछ ऐसे ही विचारों कें साथ मैंने दाम्पत्य जीवन की शुरुआत की  मीता के साथ। मीता कालेज के दिनों में मेरे साथ पढती था। उस समय मै उससे इतना आकर्षित था कि मैंने उसे अपनो जीवन संगिनी बनाने का विचार कर लिया। मीता एक अमीर परिवार की इकलौती बेटी थी जबकि मै एक मध्यवर्गीय परिवार से था। दोनों के रहन सहन में जमीन आसमान का अंतर था। यह बात माँ बाबूजी ने मुझे समझाने की बहुत कोशिश की लेकिन उस वक्त यह सब समझने के लिए मै बिलकुल तैयार न था। शायद ख्वाबों की दुनिया में जी रहा था, परंतु जल्दी ही हकीकत से सामना हो गया। मीता अपने आप को हमारे घर के रहन सहन के अनुरूप न ढाल सकी नतीजा वहीं हुआ जो मै कभी नहीं चाहता था। बचपन से ही घर में माँ बाबूजी के छोटी छोटी बात को लेकर झगड़ा होते देखा था, लेकिन उसके पीछे छुपा उनके आपसी प्रेम को कभी समझ नहीं सका। आज मै मीता के साथ सब दोहराना नहीं चाहता था इसलिए खुद को ही उसके अनुरूप ढालना शुरू किया। माँ के साथ या बहन रश्मि के साथ मीता का कोई मनमुटाव हो जाता तो मैं अक्सर माँ को या रश्मि को ही एडजस्टमेंट करने को बोलता। लेकिन हालात फिर भी न सुधरे। मीता सब छोड़ कर अपने पिता के यहाँ रहने चली गई। न चाहते हुए भी मुझे मीता के साथ उसके पिता के यहाँ रहना पड़ा।  यह बात अच्छी तरह जानने के बावजूद कि मेरे परिवार ने मीता के साथ एडजस्टमेंट करने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। आखिर अपने ही मन को समझाया कि रिश्तो को जोडे रखने के लिए कभी अंधा,कभी गूगा तो कभी बहरा भी होना पडता है लेकिन आखिर कब तक समझ नहीं पा रहा था। बहन रश्मि की शादी तय हुई। बाबूजी पर यकायक अनेकों जिम्मेदारियां आ खडी हुई शादी के इन्जामो को लेकर। इस वक्त मेरे परिवार को मेरी सबसे ज्यादा जरूरत थी आखिर अपनापन, परवाह, थोड़ा समय यही तो वह दौलत है जो मेरे अपने मुझसे चाहते थे। सोचा था माँ बनने के बाद मीता भी इन परिवारिक मूल्यों को कुछ हद तक समझ जायेगी लेकिन नहीं। उसने शादी में जाने से साफ मना कर दिया लेकिन मेरे परिवार को आज मेरी जरूरत है, मै यह कैसे भूल सकता था। आज अपना अन्धापन, गूगापन,बहरापन  सब छोड़ कर अपने पिता के कंधे से कन्धा मिलाकर खडे होने का समय था। मैंने बेटे को साथ लिया और पॅहुच गया माँ बाबूजी के घर जहां मेरी आत्मा थी। सबने खुशी खुशी गले लगाया लेकिन मीता के न आने से थोड़ा उदास जरूर हुए। खैर खुशी खुशी शादी सम्पन्न हुई। इस बीच अनेकों बार मीता के फोन आए वापस आने केलिए लेकिन मुझपर उसकी अब किसी बात का कोई असर न हुआ।  मै जिन दाम्पत्य झगडों से दूर रहना चाहता था वे आज अपनी चरमसीमा पर थे। समझ में आ चुका था  कि पति पत्नी का रिश्ता तराजू के दो पंडो की तरह होता है।  जब एक अपने अंहकार को लेकर बहुत ऊपर चला जाता है, तो दूसरे पर जिम्मेदारियों, मूल्यों का बोझ बहुत हावी हो जाता है। अतः यह जरूरी है कि विश्वास, प्यार, दोस्ती, स्नेह से दोनों पलडो को बराबर रखे। अब मीता भी अपने बेटे की दूरी ज्यादा देर न सह सकी। कुछ ही दिनों में वापस आ गई तब मैंने उसे समझाया कि आज मात्र दो साल के बेटे की दूरी उससे सहन न हुई तो मेरे माँ बाबूजी के साथ तो मेरा बरसों पुराना नाता है। भला वे मुझसे दूर कैसे रह सकते हैं, वो भी बुढापे में जब वे बिलकुल अकेले हैं। आज मीता मेरी उन सब भावनाओं को समझ पाई जिन्हें मै शान्त रहकर कबसे समझाना चाहता था। आपसी सहमति से हमने इकट्ठे रहकर दोनों तरफ के माँ बाबूजी का ख्याल रखने का निश्चय किया और साथ ही एक बडी सीख भी मिली कि छोटे मोटे मनमुटाव तो खुशहाल दाम्पत्य जीवन का आधार है। दो अलग अलग सोच रखने वालों के विचार जब आपस में टकराते हैं तो थोड़ा बहुत मनमुटाव होना संभव है लेकिन अंहकार को अलग रखते हुए आपसी सहमति से हम उन्हें सुलझा सकते है हाँ उससे पहले दोनों को अपने मत रखने का समान अधिकार मिलना चाहिए। एक दूसरे केलिए अपनी खुशी कुरबान करना ही शादी के असल मायनों को दर्शाता है।--*रुबिता अरोड़ा
*रुबिता अरोड़ा एम्स टुटोरिअल्स और श्री जी एजुकेशन पॉइन्ट में कोर्डिनेटर के तौर पर कार्यरत हैं। 

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